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हिंदी-साहित्य का इतिहास

अभिलाषियों का बड़ा उपकार किया है। रामचंद्रिका का, कविप्रिय, दोहावली, कवितावली, बिहारी सतसई आदि की इनकी टीकाओं ने विद्यार्थियों के लिये अच्छा मार्ग खोल दिया। भक्ति और शृंगार की पुराने ढंग की कविताओं में उक्ति-चमत्कार वे अच्छा लाते थे।

उनकी कविताओं के दोनों तरह के नमूने नीचे देखिए––

सुनि मुनि कौसिक तें सांप को हवाल सब।
वाटी चित्त करुना की अजब उमंग है।
पद-रज ढारि करे पाप सब छारि,
करि कवल-सुनारि दियो धामहू उतंग है॥
'दीन' मनै ताहि लखि जात पतिलोक
और उपमा अभुत को सुझानो नयो ढंग हैं।
कौतुकनिधान राम रज की बनाय रज्जु,
पद तें उड़ाई ऋषि पतिनी-पतंग है॥


वीरों की सुमाताओं का यश जो नहीं गाता।
वह व्यर्थं सुकवि होने का अभिमान जनाता॥
जो वीर-सुयश गाने में है ढील दिखाता।
वह देश के वीरत्व का है मान घटाता॥
सब वीर किया करते हैं सम्मान कलम का।
वीरों का सुयशगान है अभिमान कलम का॥

इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'नवीन बीन' या 'नदीमे दीन' है। पंडित रूपनारायण पांडेय ने यद्यपि ब्रजभाषा में भी बहुत कुछ कविता की है, पर इधर अपनी खड़ी बोली की कविताओं के लिये ही ये अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने बहुत ही उपयुक्त विषय कविता के लिये चुने हैं और उनमें पूरी रसात्मकता लाने में समर्थ हुए हैं। इनके विषय के चुनाव में ही भावुकता टपकती हैं, जैसे दलित कुसुम, वन विहंगम, आश्वासन। इनकी कविताओं का संग्रह 'पराग' के नाम से प्रकाशित हो चुकी है। पांडेयजी