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हिंदी-साहित्य का इतिहास

हैं। ज्ञान अलग पड़ा हैं, कर्म अलग। अतः इच्छा पूरी कैसे हो सकती है? यह कहकर श्रद्धा मुस्कराती हैं जिससे ज्योति की एक रेखा तीनों में दौड़ जाती है और चट तीनों एक में मिलकर प्रज्वलित हो उठते है और सारे विश्व में शृंग और डमरू का निनाद फैल जाता है। उस अनाहत नाद में मनु लीन हो जाते हैं।

इस रहस्य को पार करने पर फिर आनंद-भूमि दिखाई गई हैं। वहाँ इड़ा भी कुमार (मानव) को लिए अंत में पहुँचती हैं और देखती है कि पुरुष पुरातन प्रकृति से मिला हुआ। अपनी ही शक्ति से लहरें मारता हुआ आनंद-सागर-सा उमढ़ रहा हैं। यह सब देख इड़ा श्रद्धा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हुई कहती है कि "मैं अब समझ गई कि मुझमें कुछ भी समझ नहीं थी। व्यर्थ लोगों को भुलाया करती थी; यही मेरा काम था"। फिर मनु कैलाश की और दिखाकर उस आनंद-लोक का वर्णन करते हैं जहाँ पाप-ताप कुछ भी नहीं हैं, सब समरस है, और 'अभेद में भेद' वाले प्रसिद्ध सिद्धांत का कथन करके कहते हैं––

अपने दुख सुख से पुलकित यह मूर्त विश्व सचराचर
चिति को विराट वपु मंगल यह सत्य सतत चिर सुंदर।

अंत में प्रसाद जी वहीं प्रकृति से सारे सुख, भोग, कांति, दीप्ति की सामग्री जुटाकर लीन हो जाते हैं––वे ही वल्लरियाँ, पराग, मधु, मकरंद, अप्सराएँ बनी हुई रश्मियाँ।

यह काव्य बड़ी विशद कल्पनाओं और मार्मिक उक्तियों से पूर्ण है। इसका विचारात्मक आधार या अर्थ-भूमि केवल इतनी ही है कि श्रद्धा या विश्वासमयी रागात्मिका वृत्ति ही मनुष्य को इस जीवन में शांतिमय आनंद का अनुभव और चारों ओर प्रसार कराती हुई कल्याण मार्ग पर ले चलती है और उस निर्विशेष आनंद धाम तक पहुँचाती है। इड़ा या बुद्धि मनुष्य को सदा चंचल रखती, अनेक प्रकार के तर्क-विर्तक और निर्मम कर्म जाल में फँसाए रहती और तृप्ति या संतोष के आनंद से दूर रखती हैं। अंत में पहुँचकर कवि ने इच्छा, कर्म और ज्ञान के सामंजस्य पर, तीनों के मेल पर, जोर दिया है। एक दूसरे में अलग रहने पर ही जीवन में विषमता आती है।