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हिंदी-साहित्य का इतिहास

प्रवेश के कारण कवि-कल्पना को कोमल, कठोर, मधुर, कटु, करुणा, भयंकर कई प्रकार की भूमियों पर बहुत दूर तक एक संबद्ध धारा के रूप में चलना पड़ा है। जहाँ कठोर और भयंकर, भव्य और विशाल तथा अधिक अर्थ-समन्वित भावनाएँ हैं वहाँ कवि ने रोला छंद का सहारा लिया है। काव्य में चित्रमयी भाषा सर्वत्र अनिवार्य नहीं, सृष्टि से गृढ़-अगृढ़ मार्मिक तथ्यों के चयन द्वारा भी किसी भावना को मर्मस्पर्श स्वरूप प्राप्त हो जाता हैं, इनका अनुभव शायद पंतजी को इस एक धारा में चलनेवाली लंबी कविता के भीतर हुआ है। इसी से कहीं कहीं हम सीधे-सादे रूप में चुने हुए मार्मिक तथ्यों का समाहार मात्र पाते हैं, जैसे––

तुम नृशस-नृप से जगती पर चट अनियंत्रित
करते हो ससृति के उत्पीड़ित, पद-मर्दित,
नन्न नगर कर, भन्न भवन प्रतिमाएँ खंडित,
हर लेते हो विभव, कला-कौशल चिर-संचित।
आधि-व्याधि, वहु वृष्टि, वात-उत्तात अनंगल।
वहृि, बाढ़, भूकंप-तुम्हारे विपुल सैन्य-दल।

चित्रमयी लाक्षणिक भाषा तथा रूपक आदि का भी बहुत ही सफल प्रयोग इस रचना के भीतर हुआ है। उसके द्वारा तीव्र मर्म-वेदना जगानेवाली शक्ति की पूरी प्रतिष्ठा हुई है। दो एक उदाहरण लीजिए––

अहे निष्ठुर परिवर्त्तन।
xx
अहे वासुकी सहलफन!

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर।
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर।
शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फोत फूत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर।
मृत्यु तुम्हारा गरल दत्त, कचुक कल्पासर।
अखिल विश्व ही विवर, चक्र कुंडल दिड-मंडल।