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हिंदी-साहित्य का इतिहास

गोप-व्याकुल-कूल-उर सर,
लहर-कच कर कमल-सुरा पर
हर्ष अलि हर रर्ण्श-शर सर
गूँज बराबर! (रे कह)
निशा-प्रिय-उर शवन सुख-धन
सार, या कि असार? (रे कह)

इसमें आई हुई "अखिल पल के स्रोत जल-जग", "हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर" "निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन" इत्यादि पदावलियों का जो अर्थ कवि को स्वयं समझना पड़ा है वह उन पदावलियों से जबरदस्ती निकाला जान पड़ता है। जैसे––"हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर=आंनदरूपी भौंरा स्पर्श का चुभा तीर हर रहा है (तीर के निकलने से भी एक प्रकार का स्पर्श होता है। जो और सुखद है; तीर रूप का चुभा तीर है)। निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन= निशा का प्रियतम के उर पर शयन।"

निराला जी पर बंगभाषा की काव्य शैली का प्रभाव समास में गुंफित पद-वल्लरी, क्रियापद के लोप आदि से स्पष्ट झलकती है। लाक्षणिक वैलक्षण्य लाने की प्रवृत्ति इनमे उतनी नहीं पाई जाती जितनी 'प्रसाद' और 'पंत' में।

सबसे अधिक विशेषता आपके पद्यों में चरणों की स्वच्छंद विषमता है। कोई चरण बहुत लंबा, कोई बहुत छोटा, कई मंझोला देखकर ही बहुत से लोग 'रबर छंद', 'केचुवा छंद' आदि कहने लगे थे। बेमेल चरणों की विलक्षण आजमाइश इन्होंने सब से अधिक की हैं। 'प्रगल्भ प्रेम' नाम की कविता में अपनी प्रेयसी कल्पना या कविता का आह्वान करते हुए इन्होंने कहा है––

आज नहीं हैं मुझे और कुछ चाह,
अर्द्ध-विकच इस हृदय-अमल में आ तू
प्रिये! छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह।
गज गामिनी वह पथ तेरा संकीर्ण,

कंटकाकीर्ण।

बहु वस्तु स्पर्शिनी प्रतिभा निरालीजी में है। 'अज्ञात प्रिय' की ओर