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प्रसंग प्राप्त पद का प्रथम चरण यह है-

'आवत बने कान्ह गोप बालक संग छुरित अलकावली ।

३७. सूरदास--ब्रजवासी भाट, १५५० ई० में उपस्थित ।

काव्य निर्णय, रागकल्पद्रुम । सूरदास पर कुछ विस्तृत विवेचन की आवश्यकता है। यह अपने पिता बाबा रामदास ( सं० ११२ ) के साथ बादशाह अकबर के दरबारी गवैए थे । ( देखिए आईन-ए-अकबरी का ब्लाचमैन कृत अनुवाद पृ० ६१२ )। यह और तुलसीदास भारतीय भाषा काव्य गगन के दो महान नक्षत्र हैं । तुलसीदास 'एकान्त रामसेवक' थे, जब कि सूरदास 'एकान्त कृष्णसेवक'; और ऐसा समझा जाता है कि इन्हीं दोनों ने संपूर्ण काव्य कला को समाप्त कर दिया है ।

  भक्तमाल की टीकाओं और चौरासी वार्ता में सुरक्षित परम्परा के अनुसार यह सारस्वत ब्राह्मण थे और इनके माता-पिता भिखारी थे, जो गऊ घाट पर अथवा दिल्ली में रहते थे । इन दोनों ग्रंथों पर जो भी प्रामाणिक कृतियों हैं,वे इसी मान्यता का अनुमोदन करती हैं । मध्यकालीन भारतीय लेखक स्वतंत्र शोध की अपेक्षा परम्परा पर अधिक विश्वास रखते हैं, यह तथ्य इसी प्रवृत्ति का द्योतक है। बाद के अँगरेज एवं अन्य विदेशी लेखकों ने भक्तमाल का अनुसरण किया है और गलतफ़हमी कर गए हैं, क्योंकि हमारे पास सबसे बड़ी साक्षी स्वयं सूरदास की है कि वह सारस्वत ब्राह्मण नहीं थे और उनके पिता न तो भिखारी थे और न गऊघाट पर रहते ही थे । 
  सूरदास ने दृष्टिकूटों के संग्रह की एक पुस्तक, आवश्यक टिप्पणी के सहित लिखीं है और इसे टिप्पणी में ग्रंथकार ने अपने सम्बन्ध में स्वयं यह विवरण दिया है-

________________________________________________________ १. यह न भूलना चाहिए कि भक्तमाल के टीकाकार प्रियादास ने सूरदास की मृत्यु के प्रायः१०० वर्ष पश्चात् उनके संबंध की परम्पराओं को संकलित किया । ३. यह ग्रंथ लाइट प्रेस बनारस से प्रकाशित हो चुका है। ३. हिंदुस्तान के सबसे बड़े और मेरी समझ से एक मात्र आलोचक, स्वर्गीय इरिश्चंद्र बनारसी ने इस संबंध में सर्वप्रथम लोगों का ध्यान अपनी पत्रिका हरिश्चंद्र चंद्रिका जिल्द ६, अंक ५; पृष्ठ १-६ में आकर्षित किया । बाद में उक्त लेख “प्रसिद्ध महात्माओं का जीवन चरित्र नामक संग्रह में संकलित होकर पुनर्मुद्रित हुआ ( बांकीपुर, साहिब प्रसाद सिंह, खड्ग विलास प्रैस, १७७५ ई०) ।