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अपनी जवानी के अलम में थे और कहा जाता है कि वे आगरा से नौ कोस दूर, मथुरा की सड़क पर स्थित गऊ घाट पर रहते थे। इसी समय के लगभग यह बल्लभाचार्य के शिष्य हो गए और अपनी कविताओं में सूरदास, सूरजदास या पहले की ही भाँति सूरश्याम छाप रखने लगे इस समय इन्होंने सूर-सागर की भाषा छन्दों में अनुवाद किया और अपने पदों को सूरसागर( रागकल्पद्रुम ) नाम से संकलित किया । इनकी वृद्धावस्था में इनका यश बादशाह अकबर के कानों तक पहुँचा, जिसने इन्हें अपने दरबार में बुलाया ।इनकी मृत्यु गोकुल में सम्वत १६२० ( १५६३ ई० ) के आसपास हुई। जहाँ तक तिथियों और सूरदास के पिता को सम्बन्ध है, उक्त परम्परा निश्चय ही अशुद्ध है; क्योंकि आईन-ए-अकबरी में जो कि १५९६-९७ ई० में समाप्त हुई सूरदास और बाबा रामदास दोनों को उल्लेख स्पष्ट ही उस समय जीवित व्यक्तियों के रूप में हुआ है । अबुल फजल का कहना है कि रामदास ग्वालियर से आए थे, किन्तु बदाऊनी ( भाग २, पृष्ठ ४२ ) कहता है कि वह लखनऊ से आए।

   सूरदास के सम्बन्ध में एक और भी भारत प्रचलित दन्तकथा का उल्लेख किया जा सकता है। अन्धे होने के बाद उनके लिखक की अनुपस्थिति में कृष्ण स्वयं आते थे और उन शब्दों को लिख जाया करते थे, जो संदेह न करने ।वाले कवि के मुख से प्रस्रोत के समान स्वयं फूट पड़ते थे । अंत में सूरदास ने अनुभव किया कि लिखने वाला उनकी वाणी का अतिक्रमण कर जाता है। और उनके विचारों को उनके उचरित होने के पहले ही लिख लेता है। इससे अपने अंतर्यामी प्रभु को पहचानकर सूरदास ने उनका हाथ पकड़ लिया । लेकिन कृष्ण ने उन्हें पीछे ढकेल दिया और अंतर्धान हो गए। तब सूरदास के मुँह से एक कविता निकल गई जो आज भी प्राप्त है; और मेरी सम्मति में तो यह निश्चय ही उनकी कल्पना की उच्चतम, उड़ान है। इसका मुख्य भाव यह है-यद्यपि कोई भी मनुष्य मुझे ढकेल सकता है, पर मेरे हृदय से परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी उन्हें नहीं निकाल सकता।
  साहित्य में सूरदास के स्थान के संबंध में मैं इतना ही जोड़ना चाहता हूँ कि उनका स्थान न्यायतः बहुत ऊँचा हैं। वह सभी शैलियों में अच्छा लिखते

१. संभवत: संतदास भी ( देखिए संख्या २३५ ) । २. कहा जाता है कि इसमें साठ हजार छंद ( Verses ) हैं। ३. कर छुटकाए जात हौ, दुरबल जानी मोहि | हिरदय से जो जाहुगे, मरद वखानी तोहि ।