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किया गया है। यद्यपि इसमें उन्हीं वीरों का वर्णन है, फिर भी यह वही आल्ह खंड नहीं है, जिसका विवरण आगे जगनिक (सं० ७) के प्रकरण में दिया गया है। गार्सो दे तासी (इस्त्वायर इत्यादि भाग १, पृष्ठ १३८) के अनुसार राबर्ट लेंज नामक एक रूसी शोधी विद्वान ने चन्द्र के इस काव्य के एक अंश का अनुवाद ( रूसी में) किया था, जिसे वह १८६३ ई० में सेंट पीटर्सवर्ग वापस जाकर प्रकाशित करना चाहता था, पर इस विद्वान की अकाल मृत्यु ने (यूरोपीय) प्राच्य विद्या विशारदों को इस मनोरंजक काव्य से वंचित कर दिया। कर्नल टॉड ने इसके एक प्रकरण को 'द वोऊ ऑफ़ संजोगिता' (संयोगिता प्रतिज्ञा) नाम से एशियाटिक जर्नल की २५ वीं जिल्द, पृष्ठ १०१-११२, १९७-२११, २७३-२८६ में मुद्रित कराया था।
इस कवि के ग्रंथ का जो मेरा अपना अध्ययन है, उसने इसके काव्यगत सौंदर्य के लिए मेरे मन में अत्यन्त प्रशंसापूर्ण भावना भर दी है। परन्तु मुझे संदेह है कि राजपूताने की विभिन्न बोलियों की पूर्ण अभिज्ञता के बिना कोई इसे रस लेकर पढ़ सकता है। जो हो, भाषा विज्ञान के विद्यार्थी के लिए इसका सर्वाधिक महत्व है, क्योंकि यूरोपीय अन्वेषकों के लिए अंतिम प्राकृत और प्रारंभिक गौड़ीय लेखकों के बीच के घोर गह्वर में पदन्यास के लिए यह एक मात्र स्थान है। यद्यपि हमें चन्द की वास्तविक पाठ उपलब्ध नहीं है, फिर भी निश्चय ही उसकी रचनाओं में हमें विशुद्ध अपभ्रंश, शौरसेनी प्राकृत रूपों से परिपूण गौड़ीय साहित्य के प्राचीनतम ज्ञात नमूने प्राप्त है।
गार्सो द तासी के अनुसार जयचन्द प्रकाश या जयचन्द का इतिहास के लिए भी हम इस कवि के आभारी हैं। यह भी रावसा की ही भाषा में लिखा गया है और वार्ड ने इसके उद्धरण दिए हैं।
टि०—चन्द रनथंभौर के बीसल देव चौहान के वंशज नहीं थे। सरोज में इन्हें "महाराज बीसलदेव चौहान रनथभोर वाले के प्राचीन कवीश्वर की औलाद" कहा गया है। यहाँ ग्रियर्सन ने अनुवाद करने में थोड़ी सी भूल कर दी हैं। सरोज के अतिरिक्त इस कथन का उल्लेख अन्यत्र कहीं देखने में नहीं आया। सूरदास चन्द के वंशज थे, इस सम्बन्ध में भी विद्वानों को घोर संदेह है और 'साहित्य लहरी' का प्रसंग-प्राप्त पद प्रक्षिप्त माना जाता है। अतः चन्द के जगात गोत्रीय होने के सम्बन्ध में भी कुछ निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। हम्मीर रासो का रचयिता शारंगधर चन्द का वंशज था, इसके भी कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं। फतेहगढ़ के ठाकुरदास वाला आल्हखंढ रासो
१. टाड, भाग १, पृष्ठ ६३२ और आगे, कलकत्ता संस्करण, भाग १, पृष्ठ ६५७ और आगे।