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बाद में अत्यंत विकृत रूप में वैष्णव पोथियों के सार बने। परवर्ती कवियों ने अनुकरण करने के सिवा और कुछ नहीं किया है। किंतु जब कि इस गीत परंपरा के प्रवर्तक ने कोई भी विषय ऐसा नहीं लिया, जिसे उसने वस्तुतः सच्ची काव्यकला से मंडित न कर दिया हो, उसके अनुकरणकारियों ने उनकी विचित्र मनोरम स्पष्टता को प्रायः अस्पष्टता में बदल दिया है और उनके भावोच्छवास-पूर्ण प्रेम गीतों को वासना साहित्य में।

१८. उमापति-१४०० ई० में उपस्थित।

यह मिथिला के महान कवियों में से एक थे और परम्परा के अनुसार यह शिवसिंह के दरबारी कवि और विद्यापति के सम-सामयिक थे। देखिए जर्नल आफ़ एशियाटिक सोसाइटी आफ़ बंगाल, अंक ५३, पृष्ठ ७७, और ज़ेड० डी० एम० जी०, अंक ४०, पृष्ठ १४३, जहाँ प्रोफेसर आफेक्ट एक उमापति की तिथि ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध में स्थिर करते हैं। मैथिल परम्परा इनको वही उमापति मानती है, जिनका उल्लेख यहाँ किया गया है।

१९. जैदेव--१४०० ई० में उपस्थित।

एक मैथिल कवि। कहा जाता है कि यह गीत गोविंद के रचयिता जयदेव से भिन्न थे। यह सुगौना के शिवसिंह के दरबारी कवि और विद्यापति के सम-सामयिक थे। देखिये जर्नल आफ़ एशियाटिक सोसाइटी आफ़ बंगाल, अंक ५३, पृ० ८८.

२०. मीराबाई-मारवाड़ी। १४२० ई० में उपस्थित।

राग कल्पद्रुम। विद्यापति और उनके उत्तराधिकारियों को यहीं छोड़कर, अब हम हिंदुस्तान के एक दम पश्चिम में चल सकते हैं, जहाँ मेवाड़ में, मीराबाई, उत्तर भारत की एक मात्र महान कवयित्री रनछोड़ कृष्णा के भावो- च्छ्वासपूर्ण गीत गा रही है। यह असाधारण नारी, जो सन १४२० ई० में उपस्थित थी, मेड़ता के राठौर राजा रतिया राना की पुत्री थी और संवत १४७० ( १४१३ ई० ) में चित्तौर के राना मोकलदेव के पुत्र, राजा कुंभकरन ( संख्या २१ ) के साथ विवाहित हुई थी। इनके पति संवत १५३४ ( १४६९ ई० में अपने पुत्र ऊदा राना द्वारा मारे गए। इनका महान कृतित्व 'राग गोविन्द' है। इन्होंने जयदेव के गीत गोविन्द की एक अत्यंत प्रसिद्ध टीका भी लिखी थी। यह कृष्ण के रणछोड़ रूप की पुजारिन थीं और परम्परा कहती


१--टाड के अनुसार ( भाग २, पृष्ठ २१, कलकत्ता संस्करण भाग २, पृष्ठ २४ ) मीरा के पिता का नाम दूदा था।

२--विलसन के अनुसार उदयपुर।