पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६]
हिंदुई साहित्य का इतिहास

प्रकार की अनेक रचनाएँ राजपूताने[१] में भरी पड़ी हैं।[२] केवल एक उत्साही यात्री उनकी प्रतियाँ प्राप्त कर सकता है।

हिन्दुई और हिन्दुस्तानी में जीवनी सम्बन्धी कुछ रोचक रचनाएँ भी मिलती हैं। १६ वीं शताब्दी के अंत में लिखित, अत्यधिक प्रसिद्ध हिन्दू सन्तों की एक प्रकार की जीवनी 'भक्तमाल' प्रधान है।

जहाँ तक दार्शनिक महत्त्व से सम्बन्ध है, यह उसकी विशेषता है और यह विशेषता हिन्दुस्तानी को एक बहुत बड़ी हद तक उन्नत आत्माओं द्वारा दिया गया अपनापन प्रदान करती है। वह भारतवर्ष के धार्मिक सुधारों की भाषा है। जिस प्रकार यूरोप के ईसाई सुधारकों ने अपने मतों और धार्मिक उपदेशों के समर्थन के लिए जीवित भाषाएँ ग्रहण कीं; उसी प्रकार, भारत में हिन्दू और मुसलमान संप्रदायों के गुरुओं ने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए सामान्यतः हिन्दुस्तानी का प्रयोग किया है। ऐसे गुरुओं में कबीर, नानक, दादू, बीरभान, बख़्तावर, और अंत में अभी हाल के मुसलमान सुधारकों में, अहमद नामक एक सैयद हैं। न केवल उनकी रचनाएँ ही हिन्दुस्तानी में हैं, वरन् उनके अनुयायी जो प्रार्थना करते हैं, वे जो भजन गाते हैं, वे भी उसी भाषा में हैं।

अंत में, हिन्दुस्तानी साहित्य का एक काव्यात्मक महत्व है, जो न तो किसी दूसरी भाषा से हीन है, और न जो वास्तव में कम है। सच तो यह है कि प्रत्येक साहित्य में एक अपनापन रहता है जो उसे आकर्षण-


  1. 'मैकेन्‌जी कैटैलौग', पहली जिल्द, पृ॰ ५२ (lij)––१
  2. 'हर गुले रा रंगो बूए दोगरेस्त' (फ़ारसी लिपि से)। इस चरण का अन्वय अफ़सोस ने भी अपने 'आराइश-इ-महफ़िल' में किया है :

    हर एक गुल का है रंगो आलम जुदा
    नहीं लुत्फ़ से कोई ख़ाली ज़रा

    (फ़ारसी लिपि से)