पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/५५२

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रिशिष्ट & ए ३६9 65 एक दिन जब संकराचार्य एक ऊँचे स्थान पर बैठे हुए थे, एक कापालिक फ़क़ीर' उनके पास आया, और उनसे .यह बात कहीं : भगव, ज्यों ही में शिव के आयात से मुक्त हुआ, वे प्रकट हुए और मुझ से कहा ‘कोई वर माँगो । तब मैंने उनसे मुझे अपने दरबार में दाखिल करने की प्रार्थना की। उन्होंने मुझे उत्तर दिया : ‘यदि तुम किसी महान सम्रा, या श्रध्यात्म विद्या में पारंगत किसी जोगी का सिर ले आओगे तो मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूगा । इस उत्तर के बाद, उनकी शर्त पूरी करने के लिए बहुत घूमा हूँ किन्तु व्यर्थ ही | मैं तुम जैसे व्यक्ति को पाने में निरन्तर निशश हुआ, इसलिए तुम मुझे अपना सिर दो.।’ संकराचार्य ने उससे कहा : तुम बुद्धिमान हो, मुझे मेरे. सिर से क्या लाभ मिलेगा ? इसलिए मैं तुम्झ।रे उसे ले लेने के लिए राज़ी हैं । किन्तु यदि मुझे इसी क्षण मारोगे तो मेरे शिष्ययह कार्य देख कर, तुम्हें मार डालेंगेइसलिए तुम्हें उस समय सिर कटना चाहिए जब तुम अकेले रहो ।' कापालिक ने, इस बात से सहमत हो उसे पसन्द किया है तब सं कर उस स्थान पर गए जहाँ उन्होंने अपना सिर , का बचन दिया था, और ध्यानमस्त होकर बैठ गए । सिर काटने के लिए कापालिक भी वहाँ पहुँचा : संकर , का सेनन्दाचार्य ( Sanandanacharya.) नामक शिष्य बाहर बैठा था । इस अज़ नमी का विचार देखकर, उसने मरसिंह की स्तुति की । देवता प्रकट हुएउन्होंने कापालिक को हृदय पर आशीर्वाद दिया और साथ ही इतनी जोर से हंसे कि संकर का ध्यान टूट गया। नरसिंह का यह अद्भुत कार्य देखकर संक्रर ने उनकी स्तुति की । तब नरसिंह ने उन्हें थाशीघद दिया औौर चन्तजीने हो गए । १ अर्थात्पीने के लिए मनुष्य की लीपड़ो काम में लाने वाला । ' शब्दशः, ‘न्होंने उसका हृदय चकनाचूर कर दिया, अर्थात् उन्होंने उसे मृत्यु प्रदान की ।