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द्वितीय संस्करण की पहली जिल्द से
भूमिका

जब भारत में संस्कृत का चलन हुआ, तो देश की भाषाओं का व्यवहार बन्द नहीं हो गया था। उत्तर की भाँति दक्षिण में, संस्कृत सामान्य भाषा कभी न हो सकी। वास्तव में हम हिन्दुओं की नाट्यरचनाओं में उसे केवल उच्च श्रेणी के व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त पाते हैं, और स्त्रियाँ तथा साधारण व्यक्ति 'संस्कृत' (जिसका संस्कार किया गया हो) के विपरीत 'प्राकृत' (बिगड़ हुई) कही जाने वाली ग्रामीण बोलियाँ बोलते हैं। ये बोलियाँ केवल विद्वानों की और पवित्र भाषा समझी जाने वाली संस्कृत को बिल्कुल ही हटा देना नहीं चाहतीं।

उत्तर और उत्तर-पश्चिम प्रान्त में जिस भाषा का विकास हुआ है, जो केवल 'भाषा' या 'भाखा' (सामान्य भाषा) नाम से पुकारी जाती है, वह 'हिन्दुई' (हिन्दुओं की भाषा) या 'हिन्दी' (भारतीय भाषा) के विशेष नाम से प्रचलित है।[१]

  1. फ़ारसी और अरबी शब्दों के मिश्रण बिना हिन्दी 'ठेठ' या 'खड़ी बोली' (शुद्ध भाषा) कही जाती है; ब्रज प्रदेश की विशेष बोली 'ब्रज भाखा' कही जाती है, जो आधुनिक बोलियों में से प्राचीन हिन्दुई के सबसे अधिक निकट है; और 'पूर्वी भाखा' उसी बोली का एक रूप है जो दिल्ली के पूर्व (पूरब) में बोली जाती है। इस अत्यन्त रोचक विषय पर जे॰ बीम्स की विद्वत्तापूर्ण रचना 'Notes on the Bhojpuri dialect of hindi', जर्नल रॉयल एशियाटिक सोसायटी, सितम्बर, १८६८, में विस्तार देखिए।