पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/११२

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(८१ ) आओ। तात्पर्य यह कि गण जो काम करता था, वह सब लोगों की ओर से करता था । एक और बौद्ध ग्रंथ में उनकी राजव्यवस्था के संबंध में एक व्यंग काव्य मे इस प्रकार लिखा हुआ है-"उन लोगो में (वैशालीवालों मे ) उच्च-मध्य-ज्येष्ठ और बड़ों के आदर करने के नियम का पालन नहीं होता। सब लोग अपने आपको राजा समझते हैं। सब कहते हैं कि मैं राजा हूँ, मैं राजा हूँ। कोई किसी का अनुगामी नहीं होता।" इससे स्पष्टत: यही सिद्ध होता है कि उनकी राज-सभाओं या काउंसिलों में सभी लोगों को बोलने तथा मत देने का समान रूप से अधिकार प्राप्त था और प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता था कि अब की बार मैं राजा बन जाऊँ। $ ४६. सभापति या राजा ही सर्वप्रधान न्यायकर्ता भी होता था। न्याय विभाग का एक मंत्री होता था जो बाहरी लिच्छवियों में या दूसरे देश का भी हो सकता था और रिकों की स्वतन्त्रता की जिसे वेतन दिया जाता था । नागरिकों की स्वतंत्रता की बहुत ही सावधानी से रक्षा की जाती थी। जब तक राजा, उपराजा तथा सेनापति नाग- रसा .. महावस्तु १ २५४ वैशालकानां लिच्छवीनां वचनेन । । ललितविस्तर; अध्याय ३, नोच्च-मध्य-वृद्ध-ज्येष्ठानुपालिता, एक एव मन्यते अहं राजा अहं राजेति। न च कस्यचिच्छिष्यत्वमुपगच्छति ..। + टर्नर, उक्त ग्रंथ हि-६