पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/१४२

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(१११) सामने यह द्वंद्व जीवित और प्रस्तुत था और उसमें से एक अर्थात् क्षुद्रक लोग विजयी हुए थे* । युद्ध की समाप्ति पर भी उन लोगों का जो महत्व बच रहा था, उसे मैसिडोनिया के लेखक स्वयं स्वीकृत करते और उसका वर्णन करते हैं। इन दोनों जातियों ने "सौ राजदूत भेजे थे जो सब रथों पर प्रारूढ़ थे और असाधारण रूप से हृष्ट-पुष्ट तथा देखने में बहुत ही भव्य थे। वे वढ़िया रेशमी वस्त्र पहने हुए थे जिनमें जरी का काम बना हुआ था।" "उन्होंने कहा था कि हमारे इस दबने का कारण भय नहीं है, बल्कि दैव की प्रतिकूलता है।" उन्हें अपनी "उस स्वाधीनता के लिये बहुत अधिक अभिमान था जिसे उन्होंने बहुत दिनों से अक्षुण्ण रखा था।" जो लोग सिकंदर का विरोध करते थे, उनके साथ वह बहुत ही बुरी तरह पेश आता था। वह प्रतिहिंसापरायण था । परंतु यद्यपि इन विरोधियों से सिकंदर को खत: बहुत अधिक शारी- रिक कष्ट पहुँचा था, तथापि उसने इन दूतों का असाधारण रूप से आतिथ्य सत्कार किया था। "उसने एक बहुत ही शानदार दावत की तैयारियाँ करने की आज्ञा दी जिसमें उसने इन दूतों को निमंत्रित किया ।"........."वहाँ थोड़े थोड़े अंतर पर सोने की एक सौ चौकियां रखी गई और उनके चारों ओर जरदोजी के काम के बहुत बढ़िया परदे टॉगे गए।" .. एकाकिभिः क्षुद्रकैर्जितम् । पतंजलि कृत पाणिनि का भाष्य; ५.३ ५२. कीलहान २. पृ० ४१२.