पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/१४४

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(११३) पढ़ा ( पाया) जाता है।" पतंजलि ने एक पुराना पद्य उद्धृत किया है, जिससे सिद्ध होता है कि क्षुद्रक मालव कोई गोत्र नहीं है। उसमें आपिशालि का भी एक ऐसा नियम दिया है, जिसके संबंध में उस पद्य का रचयिता यह समझता है कि यह क्षुद्रक मालव के लिये प्रयुक्त हो सकता अथवा होता है। परंतु स्वयं उस नियम से यह नहीं ज्ञात होता कि उसका रचयिता उन लोगों से परिचित था* ! .. वेबर (History of Indian Literature) ने इस समस्त विवेचन को समझने मे भूल की; और इसी भूल के कारण उसने गाड़ी को लाकर घोड़े के आगे जोत दिया-उसका बिलकुल विपरीत अर्थ कर डाला; क्योकि वह कहता है कि श्रापिशलि ने उन दोनों को संयुक्त समझा था। वह समझता था कि इन दोनों का है, और इसी लिये उसका उत्तरा- धिकारी या परवर्ती पाणिनि इन दोनों के द्वंद्व के उपरांत हुआ था, अर्थात् पाणिनि का समय सिकंदर के बाद का है। परंतु पाणिनि के नियम या सूत्र के कारण जो आवश्यकता उत्पन्न हुई थी, उस आवश्यकता की पूत्ति कात्यायन और पतंजलि दोनों ही कर रहे हैं। यह नियम या सूत्र ऐसे समय में बना था, जिस समय इन दोनों का द्वंद्व या संयोग नही हुआ था। प्रापिशलि उनके लिये कोई नियम नहीं देता है और जिस वैयाकरण ने पतंजलि द्वारा उद्धृत पद्य की रचना की थी, उसने प्रापिशति के ऐसे नियम का प्रयोग किया था जिसका क्षुद्रक मालव के साथ कोई संबंध नहीं था। उस पद्य का रचयिता कात्यायन के वार्तिक से परिचित था। यदि कात्यायन के समय से पहले ही प्रापि- शलि अथवा किसी और ने इस अपवादात्मक नियम की रचना की होती, तो कात्यायन अपने वार्तिक में भूल को ठीक करने का श्रेय न प्राप्त करता। जो लोग इस विषय के मूल विवेचन को जानने के लिये