पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/१७

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मैं सोचता [ २ ] अनुवाद में हाथ लगाया; क्योंकि मुझे यह मालूम हो चुका था कि हिंदी के ही एक नामी और लब्धप्रतिष्ठ प्रैजुएट लेखकों ने इसके दो एक प्रकरणों का अनुवाद किया था, परंतु वह अनु- वाद जायसवालजी को पसंद नहीं आया था। था कि कही मुझे भी इसी प्रकार विफलता न हो। परंतु सौभाग्यवश मेरा अनुवाद ठीक समझा गया। केवल ठीक ही नहीं समझा गया, बल्कि जब मैं पहले खंड का अनुवाद लेकर पटने गया, तब उसे देखकर जायसवालजी ने उसकी बहुत अधिक प्रशंसा की और कहा कि यदि मैं स्वयं ही इसका अनुवाद करता, तो वह भी शायद इतना अच्छा न होता। मैंने समझ लिया कि जायसवालजी सज्जन और उदार प्रकृति के प्रादमी हैं; केवल मेरा उत्साह बढ़ाने के लिये ऐसा कह रहे हैं । जायस- वालजी ने दोही तीन दिन अनुवाद को इधर-उधर से उलट पुलट- कर देखा था और उक्त सम्मति दी थो। परंतु अपनी दुर्बल- ताएँ तथा त्रुटियाँ मैं स्वयं जानता था; इसी लिये मेरा पूरा पूरा संतोष नहीं हुआ था। मैंने जायसवालजी से निवेदन किया कि आप कम से कम एक बार इसे आद्योपांत पढ़ जायें और यदि कही आवश्यकता समझे तो इसमें काट छॉट भी कर दें। उन्होंने इसे मंजूर भी कर लिया और अनुवादित प्रति अपने पास रख ली। परंतु उन्हें इसके दो चार पृष्ठ से अधिक देखने का अवकाश नहीं मिला और उन्होंने इसके दोहराने का काम स्वर्गीय झा जी पर छोड़ दिया। झा जी ने भी इसके