पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/१८

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[ ३ ] केवल २५-३० पृष्ठ देखे और अंत में ५-६ महीने बाद यह कहकर प्रति मुझे लौटा दी कि आपने जो कुछ किया है, वह ठीक ही किया है; इसमें घटाने बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। हॉ, जब यह पुस्तक छपने लगे और कहीं कोई स्थल स्पष्ट न हो या आपको कहीं संदेह हो, तो उसका प्रूफ भेज दीजिएगा, ठीक कर दिया जायगा। परंतु जिस प्रकार मूल पुस्तक के प्रकाशन में अनेक कारणों से बहुत विलंब हुआ था, उसी प्रकार इस अनुवाद के प्रकाशन में भी आवश्यकता से अधिक विलंब लग गया। काशी नागरी- प्रचारणी सभा ने कार्तिक १८८२ में ही इस पुस्तक को सूर्यकुमारी पुस्तकमाला में प्रकाशित करना स्वीकृत कर लिया था। परंतु अनेक कारणों से प्राय: डेढ़ वर्ष तक इसके प्रकाशन की कोई व्यवस्था न हो सकी। अंत में इस वर्ष के प्रारम्भ मे सभा ने अपने प्रकाशन विभाग की नई व्यवस्था की और प्रयाग के सुप्रसिद्ध प्रकाशक इंडियन प्रेस, लिमिटेड को अपने ग्रंथों के प्रकाशन तथा विक्रय के लिये सोल एजेंट बनाया। तब कहीं जाकर इसके प्रकाशन की व्यवस्था हुई। परंतु इस बीच में हिदी के दुर्भाग्यवश श्रीयुक्तपं० राधाकृष्ण झा का शरीरांत हो गया और प्रकाशन के समय मैं, आवश्यकता पड़ने पर, उनकी अमूल्य सम्मति प्राप्त करने से वंचित रह गया। जायसवाल जी को समय का यों ही अभाव रहता है; अतः उन्हें भी कभी कष्ट देने का साहस न हुआ। अंत मे विवश होकर मुझे अपनी