पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२०५

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> (१७४) जितने सदस्यों की उपस्थिति नियमानुसार आवश्यक होती थी, यदि उतने से कम सदस्यों की उपस्थिति में ही कोई कार्य संपन्न किया जाता था, तो वह कार्य निरर्थक समझा जाता था और व्यवहार में नहीं आ सकता था। "हे भिक्खुनो, यदि बिना गणपूर्ति हुए नियम-विरुद्ध कोई कार्य हो जाय, तो वह कोई वास्तविक कार्य नहीं है और वह संपन्न नहीं होना चाहिए* " सदस्यों में से एक पर इस बात का भार होता था कि वह कम से कम उतने सदस्यों को उपस्थित करने का उद्योग करे, जितने सदस्यों की उपस्थिति गणपूरक आवश्यक होती थी। "और नहीं तो फिर मैं अगले अधिवेशन मे गणपूरक का काम करूँगा ।' ओल्डनबर्ग तथा रीस डेविड्स ने इस वाक्य का (Sacred Books of the East १३. पृ० ३०७) इस प्रकार अनुवाद किया है। "और नहीं तो मैं गण की पूर्ति करने में सहायता दूंगा।" समूह या समाज के किसी विशिष्ट अधिवेशन में गणपूरक ही उसके सदस्यों को एकत्र करने का उद्योग करता था। यह पतंजलि के महाभाष्य के इस वाक्य से मिलता हुआ है-विशिक: संघः । ५.१.२.२ पृ० ३५५. (५.१.५६. पर भाष्य ।)

विनय, महावग्ग ६.३.२.

अधम्मेन च भिक्खवे वग्गकम्म अकम्मन च करणीय । 1 महावग्ग ३. ६. ६. गणपूरको वा भविस्सामीति । -