पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२०९

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में मतभेद होता था, (१७८) ही नहीं उठता था। पर यदि किसी विषय में उपस्थित सदस्यों तो व्याख्यान दिए जाते थे और बहुतर सम्मति अथवा बहुमत मान्य किया शलाका ग्रहण, बहु जाता था। अधिक लोगों के मत सं, मत जानन का उपाय जिसे उस समय वहुतर कहते थे, किसी विषय का निर्णय हुआ करता था। पाली में इस कार्य-प्रणाली का ये-भुय्यसिकम् कहते हैं। इसका संस्कृत रूप होगा- ये भूयसीयकम् अथवा वह कार्य-प्रणाली जिसमें अधिक लोगों का मत माना जाता हो। मत या छंद प्रदान करने की क्रिया मत देने के एक प्रकार के टिकटों की सहायता से, जो रंगे हुए होत थं, संपादित होती थी। इन टिकटों को शलाका कहते थे * और इनके द्वारा सम्मति एकत्र करने को शलाका. ग्रहण कहते थे। समस्त संघ के द्वारा एक व्यक्ति नियुक्त होता था, जो इस प्रकार शलाकाएँ संग्रह करके उनकी संख्या आदि बतलाता था और जिसे शलाका ग्राहक कहते थे वह यह बतलाता था कि किस रंग से क्या सूचित होता है; और या ती गुप्त रूप से और या खुले आम शलाकाएँ संग्रह किया करता था। "जो भिक्खु पाँच गुणों से संपन्न होगा, वही शलाका ग्राहक नियुक्त किया जायगा। अर्थात् जो किसी का पक्षपात न 9 1 लेख के आधार में हमें पता चलता है कि ये शला- काएँ काठ की बनी होती थीं।