पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२२२

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( १६१ ) वहीं के वे रहनेवाले थे। इसके अतिरिक्त उनका जीवन भी प्रजातंत्री समाजों में ही व्यतीत हुआ था। वे उन प्रजातंत्रों की कार्य-प्रणालियों से भली भॉति परिचित थे और उन्हें उन्होंने अपने संघ के हित के विचार से ग्रहण किया था वे धार्मिक ढंग से एक बड़ा राज्य बल्कि साम्राज्य (धर्मचक्र) स्थापित करना चाहते थे; परंतु अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने जो संघटन स्थापित किया था, वह वर्गीय ही था। परंतु वह संघटन धर्मचक्र स्थापित करने के लिये उपयुक्त नहीं था, बल्कि धर्म का एक नगर-राज्य स्थापित करने के ही उपयुक्त था। उनके कार्य की सीमा जो इस प्रकार संकुचित हो गई थी, उसका कारण उनके आरंभिक जीवन का संस्कार था। उनका जन्म एक ऐसे प्रजातंत्र में हुआ था जिसमें अपने समकालीन अन्य राज्यों की अपेक्षा राजनीतिक तथा सार्वजनिक भावों की विशेष प्रबलता थी; और इसी लिये उनमें एक शांत त्यागी के योग्य उत्साह और आकांक्षाएँ नहीं थीं, बल्कि एक प्रजातंत्री राजा तथा विजेता के उपयुक्त गुण और आकांक्षाएँ आदि थीं* । साधारण हिदू संन्यासियों के विपरीत वे अपने संघ के

  • व्यक्तिगत विषयों मे भी बुद्ध भगवान् वही सनातन संकुचित भाव

प्रकट किया करते थे जो उनमें प्रारंभिक संस्कारों के कारण उत्पन्न हुए थे। वे संसारत्यागी हो जाने पर भी अपने इक्ष्वाकुवंशी होने का अभिमान किया करते थे। ब्राह्मण कृष्णायन से, जिसने उन्हें शाक्य कहकर अपमानित किया था, उन्होने कहा था कि वह (कृष्णायन) इक्ष्वाकु की एक दासी का वंशधर था। उन्होने कहा था-'यदि तुम