पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२२५

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है कि छंद या मत प्रदान करने का अधिकार कुल के विचार से ही प्राप्त होता था। बुद्ध ने लिच्छवियों के पुत्रों को उपदेश देते हुए कहा था कि कुलपुत्त उन्नति करके किसी राज्य के शासक हो सकते हैं, राष्टिक या पैतनिक हो सकते हैं, सेनापति हो सकते हैं या किसी नगर के निर्वाचित राजा या सभापति (गामगामणिक-किसी ग्राम के प्रधान अधिकारी) या शिल्प संबंधी किसी गण या संघ के सभापति ( पूगगामणिक ) हो सकते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इन सब पदों के लिये अधिकारियों का निर्वाचन हुआ करता था और किसी गण राज्य में एक कुलपुत्त इनमें से प्रत्येक पद के लिये निर्वाचित हो सकता था। इसके अतिरिक्त एक छठा कार्य और बतलाया गया है और वह उस कुल राज्य के संबंध में है जिसका हम अभी ऊपर उल्लेख कर चुके हैं। वह कार्य है-'पारी पारी से दूसरे शासकों पर प्रधान शासक होना। धर्मशास्त्रकार कात्यायन का कथन है कि गय कुलों का समूह है।। कुल-राज्यों तथा कुल्ल-प्रजातंत्रों में राजनीतिक अधि- कारों आदि का आधार कुल या वंश ही था। परंतु यह नियम उन राज्यों में नहीं हो सकता था, जिन्हें यूनानियों ने

- देखो पहले पृ० १४३ का दूसरा नोट ।

कुलेसु पच्चेकाधिपच्छं। अंगुत्तर निकाय, खंड ३. पृ० ७६.

  • कुलानां हि समूहस्तु गणः सम्परिकीति तः । वीरमित्रोदय

पृ०४२६.