पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२२८

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( १-६७ ) दिए गए हैं, उनके अतिरिक्त ऐसे नियम भी हैं जिनसे यह सूचित करनेवाले नाम बनाए जाते हैं कि कोई व्यक्ति किस देश अथवा राज्य के प्रति भक्ति रखता है और जिससे यह सिद्ध होता है कि उन दिनों लोगों में कृत्रिम नागरिकता का भी भाव होता था। मद्र या वृजि के प्रति भक्ति रखने के कारण व्यक्ति मद्रक या वृजिक कहलाता था। अतः यदि कोई वृजिक होता था, तो उसके लिये यह आवश्यक नहीं था कि वह जन्म से ही वृजि हो अथवा यदि मद्रक हो, तो जन्म से ही मद्र हो । यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कौटिल्य ने राजशब्दोपजीवी संघों का उल्लेख करते हुए वृजिक और मद्रक रूपों का ही व्यवहार किया है। जैन सूत्र में भी मल्लक (P) और लेच्छवि (क) रूप ही पाए हैं। वृजिकों में वृजि और अ-वृजि दोनों ही होते थे, पर दोनों वृजि के प्रति भक्ति रखते थे; और इन अ-वृजियों में वे लोग भी हो सकते थे, जिन पर प्रारंभ मे वृजियो ने विजय प्राप्त की थी अथवा जो लोग स्वेच्छापूर्वक आकर वृजियों में मिल गए थे। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि प्रजातंत्रों मे विदे- शियों या बाहरवालों को भी नागरिकता के अधिकार प्रदान किए जाते थे। इससे यह बात भी खुल जाती है कि मालवों और यौधेयों का, जिनके अधिकार में पिछली शताब्दियों में बहुत अधिक विस्तृत प्रदेश आ गए थे, सीमा और वर्ग की दृष्टि से इतना अधिक विस्तार क्यों और कैसे हो गया था।