पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२२९

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(१८) [8 ११६. भारतीय तथा युरोपियन संस्कृतज्ञों ने पाणिनि के वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन् (४. ३. ६८.) के आधार पर एक तर्क खड़ा किया है। इसके आधार पर यह अर्जुन के प्रति भक्ति कहा जाता है कि पाणिनि के समय में और उससे पहले लोग वासुदेव की पूजा किया करते थे। परंतु मूल पाठ से प्रकट होता है कि वहॉ धार्मिक भक्ति से अभि- प्राय नहीं है। यहाँ पाणिनि का अभिप्राय राजनीतिक भक्ति या शासन-विधान के प्रति होनेवाली भक्ति से है। उदाहरण के लिये ४. ३. १००. मे आई हुई जनपदों के अधिकारियों या खामियों के प्रति होनेवाली भक्ति को लीजिए। अवश्य ही जनपदों के इन अधिकारियों या स्वामियों का कभी पूजन नहीं होता था। इसके अतिरिक्त इससे पहलेवाला सूत्र ४.३.६७. लीजिए जिसमें महाराज के प्रति भक्ति का उल्लेख है। कोई यह नहीं कह सकता कि महाराज की, चाहे वह व्यक्ति हो और चाहे देश हो, कोई पूजा करता था। फिर हमें इसके पहले के और सूत्रों का भी विचार करना चाहिए, जिनमें सिंधु, तक्षशिला, और शस्लातुर आदि के संबंध में किसी व्यक्ति के अभिजन या जन्म-स्थान और उसके विपरीत उसके निवास अथवा रहने के देश के संबंध में विवेचन किया गया है। इन सब में कहीं धार्मिक भक्ति का पता ही नहीं है। और फिर विद्वानों ने वासुदेव शब्द पर तो विचार किया है, पर उसी सूत्र में वासु- देव के साथ ही जो अर्जुन शब्द आया है, उस पर उन्होंने कोई