पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१६) ध्यान ही नहीं दिया। इस बात का कोई प्रमाण ही नहीं है कि अर्जुन को भी लोगों ने देवता बना डाला था । इन दोनों क्षत्रियों के प्रति जो भक्ति बतलाई गई है. वह राजनीतिक भक्ति है। जिस प्रकार कात्यायन (कीलहान, भाग २. पृ० २६५.) ने वासुदेव के वर्ग का उल्लेख किया है, उसी प्रकार जान पड़ता है कि साहित्य मे वासुदेव और अर्जुन के प्रति राजनीतिक भक्ति रखनेवालों का दल प्रसिद्ध हो गया होगा। पाणिनि में एक सूत्र (४.३.६६.) आया है जिसमें क्षत्रिय शासक के नाम के प्रति भक्ति रखनेवालों की संज्ञा का रूप बनाने का विधान किया गया है। पतंजलि की समझ में यह बात नहीं आई थी कि जब यह सूत्र आ ही चुका है, सब फिर वासुदेवार्जुनाभ्यां वुन् वाला एक अलग सूत्र देने की क्या आवश्यकता थी। उसने लिखा है- "गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यो बहुलं वुन (४.३.६६) इत्येव सिद्धम्। न ह्यस्ति विशेषो वासुदेवशब्दाबुनो वा बुन्यो वा । तदेव रूपं स एव स्वरः। इदं तर्हि प्रयोजनं वासुदेवशब्दस्य पूर्वनिपात वक्ष्यामीति । अथवा नैषा क्षत्रियाख्या। संज्ञेषा तत्र भवतः ।" इससे सिद्ध होता है कि पतंजलि ने यहाँ इतनी बात तो अवश्य समझ ली है कि पाणिनि के ४. ३.५८, वाले सूत्र में वासुदेव और अर्जुन के प्रति जिस भक्ति का उल्लेख है, वह उन्हें क्षत्रिय शासक मानकर की जानेवाली भक्ति है, देवता मानकर की जानेवाली भक्ति नहीं है। परंतु उसकी