पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२३१

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( २००) समझ में यह नहीं पाया है कि यह सूत्र अलग देने की क्या आवश्यकता थी। पतंजलि की घबराहट का कारण यह जान पड़ता है कि उसने भ्रम से कात्यायन के 'गोत्रक्षत्रिया- ख्येभ्यो बहुलं बुबू' वाले वार्तिक को पाणिनि का एक सूत्र ही समझ लिया है; और इसी से यह गड़बड़ी हुई है। वास्तव में बात यह है कि 'गोत्रक्षत्रियाख्येभ्यो बहुलं बु' सूत्र नहीं है, बल्कि पाणिनि के सूत्र ४. २. १०४. का वार्तिक (अंक १८, कोलहान पृ० २६६.) है। यह संभव नहीं है कि एक ही नियम कात्यायन का वार्तिक भी हो और पाणिनि का सूत्र भी हो। यह वार्तिक के रूप में आया है और इसे वार्तिक के रूप में ग्रहण करने से भाव स्पष्ट हो जाता है। प्रसिद्ध क्षत्रिय शासकों के प्रति होनेवाली भक्ति के संबंध में एक साधारण नियम देकर कात्यायन ने मानों पाणिनि में होनेवाली त्रुटि पूरी कर दी है।]