पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२३४

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(२०३) होना चाहिए; अर्थात् दंड सभापति या गण के प्रधान शासक के नाम से दिया जाना चाहिए । जान पड़ता है कि वृजियों में यही हुआ करता था। एकराज शासन-प्रणाली की भॉति गण में भी शिल्पियों आदि की संघटित संस्थाएं हुआ करती थीं। इन संस्थाओं को, जिन्हें उस समय पूग कहते थे, न्याय संबंधी कुछ अधिकार भी प्राप्त होते थे। परंतु उनके जो निर्णय हुआ करते थे, उनकी अपील कुल तथा गण के न्यायालयों में हो सकती थोः । जब गणों पर एकराजों ने विजय प्राप्त कर ली और वे एकराज शासन-प्रणाली के अधीन हो गए, जैसा कि परवर्ती धर्मशास्त्री नारद, बृहस्पति और कात्यायन के समय में हुआ था, तब यह नियम बन गया था कि गण के निर्णय की

- देखो आगे चौदहवा प्रकरण ।

| अंगुत्तर निकाय, खण्ड ३, पृ० ७६, देखो ऊपर 8 ११७,

  • कुलश्रेणिगणाध्यक्षाः प्रोक्तनिर्णयकारिण ।

येषामग्र निश्चितस्य प्रतिष्ठा तूत्तरोत्तरा ॥ विचार्य श्रेणिभिः कार्य कुलैय न विचारितम् । गणैश्च श्रेण्यविख्यात गणाज्ञातन्नियुक्तकैः ॥ कलादिभ्योऽधिकाः लभ्यास्तेभ्योऽध्यक्षोऽधिकः कृतः । सर्वेषामधिको राजा धर्म यत्नेन निश्चितम् ।। (वीरमित्रोदय पृ० ४० मे उद्धत वृहस्पति ) ये सब उद्धरण उस समय के संबंध में हैं, जव कि सब गण एक- राज्यो के अधीन हो गए थे।