पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२३८

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( २०७) कर्ता की सम्मति में गण शासन-प्रणाली का यह एक बड़ा दोष था (श्लोक ८ और २४)। इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि थोड़े से लोगों की परिमित समष्टि का ही नाम गण नहीं था। अनेक गण मिलकर अपना एक संयुक्त संघ या समूह भी बना लेते थे (श्लोक ११ से १५)। २१वें श्लोक में इस बात की ओर भी संकेत है कि गणों में विद्या की चर्चा भी यथेष्ट होती थी। महाभारत में आया है- गयाना वृत्तिमिच्छामि श्रोतु मतिमतां वर ॥ ६ ॥ यथा गणाः प्रवर्द्धन्ते न भिद्यन्ते च भारत । अरींश्च विजिगीषन्ते सुहृदः प्राप्नुवन्ति च ।। ७ ।। भेदमूलो विनाशो हि गयानामुपलक्षये । मन्त्रसंवरणं दुःखं बहूनामिति मे मतिः ॥८॥ एतदिच्छाम्यहं श्रोतु निखिलेन परन्तप । यथा च ते न भिधेरेस्तच्च मे वद पार्थिव ॥६॥ भीष्म उवाच गणानाञ्च कुलानाञ्च गज्ञां भरतसत्तम । वैरसन्दीपनावेता लोभामर्षी नराधिप ॥ १०॥ लोभमेको हि वृणुते ततेाऽमर्षमनन्तरम् । तो आयव्ययसंयुक्तावन्योन्यञ्च विनाशिनौ ॥११॥ चारमन्त्रबलादानैः सामदानविभेदनैः । आयव्ययभयोपायैः कर्षयन्तीतरेतरम् ॥ १२ ॥