पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२४५

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( २१४ ) तुरंत ही मूल या जड़ को काटता है। (३०) जब (किसी गण के सदस्य) अकस्मात उत्पन्न हो जानेवाले क्रोध, मोह या स्वभा- वतः उत्पन्न होनेवाले लोभ के कारण आभ्यंतरिक भय आपस में बातचीत या वाद विवाद करना छोड़ दें, तो इसे पराभव का लक्षण समझना चाहिए । "(गणों में) जाति की दृष्टि से और कुल* की दृष्टि से भी सब लोग समान होते हैं। (३१) उन लोगों में उद्योग, बुद्धि या रूपा के लालच से भेद नहीं उत्पन्न गणो में समानता किया जा सकता। हॉ, शत्रु लोग भेद और उसका प्रभाव नीति और प्रदान (धन का लालच ) की नीति का अवलंबन करके उनमें भेद भाव उत्पन्न कर सकते हैं। (३२) इसलिये गणों की सब से अधिक रक्षा संघात (के संघात की सिफारिश निर्वाह ) में ही समझी जाती है।" ' कुल से अभिप्राय राजाओं के वंशो से है, जैसा कि ऊपर दसवें श्लोक में कहा गया है; अथवा इसका अभिप्राय समस्त वंशों के समूह से है जिसका भाव अलग अलग व्यक्तिवाले भाव के विपरीत है। हमारे यहाँ की सामाजिक परिभाषा में इस विभेद का अब तक निर्वाह होता है; क्योंकि लोग प्रायः 'धर पीछे' (अर्थात् प्रति गृहस्थी) और 'पगड़ी पीछे' (अर्थात् प्रति व्यक्ति) पदों का व्यवहार करते है। अधिक संभा- वना इसी बात की जान पड़ती है कि इससे कुलों की समानता अभिप्रेत हो; अन्यथा जाति या जन्म के विचार से सब लोगों की समानता का उल्लेख कर चुकने के उपरांत इस प्रकार का कथन युक्तियुक्त नहीं होगा। रूपद्रव्येण ।