पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२५२

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(२२१ ) बहुत से ऐसे प्रजातंत्र थे जिनकी सृष्टि बिलकुल अगोत्रीय अवस्थाओं में हुई थी-जिनकी स्थापना और नामकरण में गोत्र या वंश आदि का कोई भाव नहीं था। बाद के शालंकायन, प्रार्जुनायन और पुष्यमित्र आदि अनेक राज्य (अठारहवॉ प्रक- रण) ऐसे थे जो व्यक्तियों के नाम पर बने थे और जिनके नाम का मूल बहुत बाद का है। इन नामों से भी यही सुचित होता है कि ये सब राज्य किसी एक ही गोत्र या वंश के लोगों के नहीं थे। ६१२८. पर साथ ही, जैसा कि हम अभी कह चुके हैं, यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि हिंदू प्रजा- तंत्रो मे कहीं गोत्रीय तत्त्व या सिद्धांत गोत्रीय तथा कृत्रिम पाया ही नहीं जाता। सभी कालों संघटनो का दिभेद और सभी देशों में प्रत्येक राज्य का आधार एक बड़ी सीमा तक जातिमूलक या गोत्रीय हुआ करता है। परंतु इस संबंध मे वास्तविक प्रश्न अथवा जानने योग्य बात यह है कि क्या वह राज्य-संघटन अभी तक जाति- मूलक या वैसा ही है जैसा कि समाजों की बिलकुल प्रारंभिक अवस्था में स्वाभाविक और साधारण रीति से हुआ करता है, अथवा वह बुद्धिमत्तापूर्ण विचारों, सिद्धांतो और समझ बूझकर किए हुए अनुभवों तथा प्रयोगों का परिणाम है। जिस अवस्था में यह समझा जाता है कि राज्य आपस के समझौते के आधार पर स्थित है और शासक केवल शासितों का सेवक