पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२५३

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(२२२) समझा जाता है और जिस अवस्था में राजनीतिक भक्ति (६११८- ११६) का द्वार विदेशियों या अजनवियों तक के लिये खुला रहता है, शासन-प्रणाली के विकाश में वह अवस्था बहुत ऊँची समझो जाती है। साधारण रूप से मत या छंद प्रदान करना, शलाकानो के द्वारा मत प्रदान करना, ज्ञप्ति, प्रतिज्ञा और कानून वनाना तथा किसी विषय के निर्णय या मीमांसा में नियमों तथा निश्चित रीतियों आदि का पालन करना आदि उस उच्च अवस्था के अन्यान्य लक्षण हैं 1 व्यक्तिगत राजनीतिक समाजों को इन्हीं शासन-प्रयालियों तथा संघटनों ने विशिष्ट रूप प्रदान किया था और यदि हम कहना चाहें तो कह सकते हैं कि उनको कृत्रिम गोत्रों में परि- वर्तित कर दिया था । इसलिये वास्तविक तथा कृत्रिम गोत्रों-- जातिमूलक तथा राजनीतिक गोत्रों का ठीक ठीक विभाग करना बहुत ही कठिन हो जाता है। जैसा कि महाभारत में दिए हुए वृष्णियों तथा अंधकों के विवरण से सूचित होता है, संभवतः प्रारंभिक सात्वत् लोग वास्तव में एक ही गोत्र के थे। परंतु राजन्य जनपद (निर्वाचित राजा का देश) स्पष्टतः एक राजनीतिक गोत्र, एक राजनीतिक समाज और केवल शासन-प्रणाली या संघटन से उद्भूत था। यही बात महाराज जनपद के संबंध में भी थी। ऐसी अवस्थाओं में जनपद एक राजनीतिक समष्टि या संभवतः नगर राज्य जाता है। इसी प्रकार राष्ट्रिक और भोज भी शासन-प्रणाली या संघटन