पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२६०

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( २२६) वह लिखता है-"किसी संघ को प्राप्त करना, जीतना, मित्रता संपादित करने अथवा सैनिक सहायता प्राप्त करने से अधिक उत्तम है। जिन्होंने मिलकर अपना संघ बना लिया हो, उनके साथ साम और दान की नीति का व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि वे अजेय हैं। जिन्होंने इस प्रकार अपना संघ न बनाया हो, उन्हें दंड और भेद की नीति से जीतना चाहिए।" इसके उपरांत भेद नीति का विस्तारपूर्वक वर्णन करके अंत में कहा गया है-"संघों के साथ एकराज को इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए; इत्यादि ।।

  • संघलाभो दण्डमित्रलाभानामुत्तमः । संवाभिसंहतत्वादष्यान्

परेषां ताननुगुणान् भुञ्जीत सामदानाभ्याम् । द्विगुणान् ( विगुणान् पाठ होना चाहिए) भेददण्डाभ्याम् । अर्थशास्त्र, पृ० ३७६. अनु- गुणान् का भाव विगुणान् के भाव के विपरीत होगा। द्विगण का कोई सन्तोषजनक अर्थ नहीं होता। उसका अर्थ हो सकता है-'दो का संघ'; परंतु वे अनुगुण होंगे। इसी लिये मेरी समझ में उक्त संशो- धन होना चाहिए। इसी प्रकरण मे आगे चलकर अर्थात् पृ०३७६ में विगुण का जो व्यवहार हुआ है और विवेचन में द्विगुण का नितांत अभाव पाया जाता है, उससे मेरे इस मत का समर्थन होता है । श्रीयुत शाम शास्त्री ने अनुगुणान् का जो favourably disposed अर्थ किया है, वह वास्तविक अर्थ से बहुत दूर है। अर्थ-शास्त्र (अ० ११ )। पृ० ३७६-७६ में शत्र ओ मे भेद उत्पन्न करने के उपायो का विवेचन किया गया है और उसके अंत मे आया है-संवेष्वेवमेकराजो वत्त त । साथ ही देखो पृ० ३७६ मे "कलहस्था तेषु हीनपक्षं राजा" आदि में "राजा" शब्द।