पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२६१

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(२३०) तात्पर्य यह कि जो गण या प्रजातंत्र राज्य बलवान होते थे और मिलकर अपना संघात बना लेते थे, मौर्य नीति उन्हें आदर- पूर्वक रहने देती थी, क्योंकि उन पर विजय प्राप्त करना कठिन होता था। परंतु जो संघात में सम्मिलित नहीं होते थे, बल्कि अलग रहते थे, वे भेद नीति के द्वारा निर्वल कर दिए जाते थे और तब चल-प्रयोग करके उनका अंत कर दिया जाता था। पता चलता है कि जब अर्थशास्त्र की रचना हुई थी, उससे पहले ही इस प्रकार के कई अलग रहनेवाले फुटकर गण मौर्य साम्राज्य की अधीनता में आ चुके थे। संघात में बद्ध गणों की प्रतिष्ठा उनके बल के अनुसार होती थी। उनमें से कुछ के साथ समानता का व्यवहार किया जाता था और कुछ को दान नीति के द्वारा अथवा समय कुसमय पर कुछ निश्चित आथिक सहायता देकर अपने पक्ष में कर लिया जाता था; और कदाचित् समय पड़ने पर उनसे कुछ सैनिक सहायता की भी आशा की जाती थी, क्योंकि उनकी केवल मित्रता ही नहीं संपादित की जाती थी ( मित्रलाभ ), बल्कि साथ ही उनसे सैनिक सहायता पाने की भी शर्त रखी जाती थी। इस नीति का परिणाम यह हुआ कि मौर्य साम्राज्य में जो बलवान् गण थे, वे तो बच रहे और जो दुर्वल थे, उनका अंत हो गया। क्षुद्रक, मालव और वृजि प्रादि राज्य, जो कात्यायन और पतं- जलि में प्रधान राज्य और बहुत अच्छी दशा में मिलते हैं*, पाणिनि पर महाभाष्य १. २. ४५. और ५. ३. ५२. 2 , .