पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२६५

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(२३४) भॉति अंत या बाहरीवाले भाव के विपरीत है। अपरांत का जो पहला अर्थ दिया गया है, वह मान्य नहीं हो सकता; इसलिये हमें उसका दूसरा अर्थ 'साम्राज्य के अंतर्गत लेना चाहिए। तेरहवें प्रज्ञापन के 'इधर' या 'यहाँ' शब्द के साथ यह अर्थ मेल भी खाता है। ऐसी दशा मे दोनों समूह एक ही प्रकार के अंतर्गत आ जाते हैं अर्थात् वे साम्राज्य के अंतर्गत अथवा अंतर्मुक्त पड़ोसी हो सकते हैं। ६ १३२. अब हमें यह देखना चाहिए कि राजविषय का क्या अभिप्राय है। अशोक अपने प्रदेशों का उल्लेख करते समय सदा उत्तम पुरुष संबंध कारक का व्यवहार करता है। वह कहता है-'मेरा साम्राज्य' । अत: उसके देशों को राज- कीय देश कहना उसकी सर्व-विदित परिपाटी के विपरीत होगा। यदि उसका अभिप्राय होता तो वह कहता 'मेरे देश' 'मेरे विषय'; वह उन्हें कभी 'राजविषय' न कहता। इसके अति- रिक्त उसी वाक्य में वह पहले ही कह चुका है-'मेरे साम्राज्य भर में'; इस लिये यहाँ इस बात का कोई अवसर नहीं था कि वह अपने अलग अलग देशों या प्रांतों का उल्लेख करता। अत: यह राज-विषय पॉचवें प्रज्ञापन के अपरांत का समानार्थी ही है। ऐसी दशा में राजविषय का अर्थ होना चाहिए- साम्राज्य के अंतर्भुक्त शासन करनेवाले (अथवा राजकीय) देश (अथवा जिले)। यहाँ अंतर्भुक्त पड़ोसी का भी वही अर्थ है जो शासन करनेवाले विषय का है।