पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२९३

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(२६२) करते थे, पर उनका कोई राज्य नहीं रह गया था; और नाम मात्र के लिये जो राज्य था भी, उसमें कोई शक्ति नहीं रह गई थी। ६१६०, यही दशा प्राचीन राजन्यों की भी हो गई श्री जो फिर दोबारा ई० पू० २००-१०० में सामने पाते हैं; पर इसके उपरांत वे फिर सदा के लिये अदृश्य हो जाते हैं। उन्होंने अपने सिक्को (ई० पू० २०० १००) अपने देश के नाम सं अंकित किए थे। उन पर लिखा रहता था-"राजन्य जनपदस मुद्राशास्त्र के विद्वानों ने इस राजन्य शब्द को 'त्रिय शब्द का प्रसिद्ध पर्याय माना है (देखो वि०स्मिथ कृत Catalogue of the Coins in the Indian Museumभाग१.पृ० १६४.); परंतु यह भूल है। राजन्य एक विशिष्ट राजनीतिक समाज या वर्ग का नाम है। पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि ने और साथ ही महाभारत ने भी स्पष्टत: यही कहा है। उनके सिझे उसी पुराने ढंग के हैं जिसे पाणिनि (५. १. २५.) ने कांशिक (काँसे का) अर्थात् ढाला हुना कहा है। उनके ठप्पेत्रान्ते जो सिक्के हैं, उन पर का लेख स्रोष्ठी लिपि में है। वे सिने उत्तरीय क्षत्रपों के सिक्कों से बहुत मिलते जुलने हैं और उन पर इन्हीं सिकों की तरह की प्राकृतियाँ धनी १. कनिंघम ऋन C. A. I. पृ० ६६.