पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/२९८

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मे एक वृक्ष, (२६७) थी तो) निर्वाचित राजा हुआ करता था। इनके सिक्को पर राजा का भी नाम होता था और समाज का भी; (उदा- हरणार्थ महदेवस रण धरघोषस ओदु'बरिस) और इनके राजा महादेव या महाराज कहलाते थे। इनके सिक्कों पर के लक्षणों ऊँचे खंभों और ढालुओं छत का एक भवन, जो कदाचित् उनके मंत्रणा-गृह या किसी दूसरी सार्वजनिक इमारत का सूचक होगा, और उनकी ध्वजा का चिह्न होता है जिसे कनिंघम ने भ्रम से धर्मचक्र समझ लिया है । इस पर "विश्व- मित्र लिखा हुआ है और उसके ऊपर एक ऋषि की मूर्ति अंकित है। कदाचित् विश्वामित्र इनके जातीय गुरु और ऋषि थे*। इन सिक्कों पर की खरोष्ठी लिपि से यह सूचित होता है कि ई० पू० १०० के लगभग ये लोग भी पंजाब के अपने पड़ोसियों की भॉति क्षत्रपो के प्रभाव में चले गए थे और अंत मे हजम हो गए थे। इसके परवर्ती काल मे इन लोगों के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इनकी जो शाखा कच्छ में जा बसी थी, जान पड़ता है, वह अधिक समय तक अवस्थित थी। ये लोग अपने वंशज छोड़ गए हैं, जो आजकल के गुजराती ब्राह्मणों के अंतर्गत हैं और औदुबर ही कहलाते हैं।

- रैप्सन कृत प्लेट ३ ८ कनिंघम कृत C. A. I पृ० ६६-६८.

इन्होंने जिन बहुत से सिक्को को औदुबरो के सिक्के मान लिया है, वे वास्तव में औदुबरो के नहीं हैं । देखो A.S.B खंड १४ पृ० १३५-६ मे इनका दिया हुआ महत्वपूर्ण नोट ।