पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३०५

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बीसवाँ प्रकरण नैतिक महत्व हिंदू गण-शासन-प्रणाली की आलोचना $ १६८. प्रजातंत्रों या गणों का विवरण समाप्त करने से पहले यह आवश्यक है कि इन सब प्रणालियों की कुछ आलोचना कर ली जाय। भारत के प्रजातंत्र या गण राज्यों के कानून या धर्म और उसके अनुसार शासन करने की व्यवस्था की प्रशंसा प्रायः सभी यूनानी लेखकों ने एक खर से की है; और उनकी इस प्रशंसा का समर्थन महाभारत से होता है। इन राज्यों में से कम से कम कुछ तो अवश्य ऐसे थे, जो पहले के फैसल किए हुए मुकदमों की नजीरें पुस्तकों मे लिख रखा करते थे। यहाँ तक कि उनका कट्टर शत्रु कौटिल्य भी कहता है कि संघ का जो मुख्य या प्रधान होता है, अपने संघ में उसकी प्रवृत्ति न्याय की ओर होती है। उनमें न्याय का यथेष्ट ध्यान रखा जाता था। बिना न्याय के कोई गण या प्रजातंत्र अधिक समय तक चल ही नहीं सकता। उन लोगों का दूसरा गुण उनकी दांति होती थी। कौटिल्य ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि संघ का मुख्य या प्रधान दांत हुआ करता था।

  • संघमुख्यश्च संधेषु न्यायवृत्तिहितः प्रियः। अर्थशास्त्र पृ० ३७६.

+दान्तो युक्त जनस्तिष्ठेत् । उक्त ग्रन्थ ।