पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३१३

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(२८२) वाली संस्था या सरकार मानते थे और उसे समाज से अलग समझते थे। उनमें व्यक्ति का अस्तित्व राज्य में लीन नहीं हो जाता था। पर साथ ही इन दोनों में इतनी अधिक एकता है कि दोनों प्रायः बिलकुल एक ही मालूम होते हैं । इसके विपरीत अराजक या बिना राजावाले राज्य में व्यक्तित्व की प्रधानता पराकाष्ठा तक पहुँची हुई होती थी। जो लोग अराजक सिद्धांत के पक्षपाती होते थे, वे स्वयं शासन या सरकार को ही एक बड़ा भारी दोष या खराबी समझा करते थे। उनमें किसी को शासन करने का अधि- कार ही नहीं दिया जाता था। उनमें केवल कानून या धर्म का ही शासन होता था; और यदि कोई किसी प्रकार का अप- राध करता था. तो उसके लिये उनके यहाँ एक मात्र यही दंड था कि वह समाज से निकाल दिया जाय। वे लोग व्यक्तियों के प्रधान या शासम होने का अधिकार किसी एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह को नहीं प्रदान करते थे । इसमें संदेह नहीं कि इन सिद्धांतों के आधार पर जिस राज्य की सृष्टि होती होगी, वह बहुत ही छोटा होता होगा। परंतु जैसा कि पहले जैन-सूत्र के आधार पर बतलाया जा चुका है, हिंदू भारत में इस प्रकार के राज्य भी हुआ करते थे। एकराज शासन-प्रणाली के पक्षपाती कह सकते हैं-"अरा- जक राज्य से बढ़कर खराब और कोई राज्य नहीं हो देखो ६ १०१.