पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३१५

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(२८४) पूर्वक शासन करने और उसके बदले में कर ग्रहण करने के संबंध में समझौता करते हैं, तब वे यही कहते हैं कि हमें यह समझौता इसलिये करना पड़ा कि अराजक शासन-प्रणालो का जो समझौता था, वह ठीक तरह से कार्य रूप में परिणत न हो सका। परंतु यहाँ भी एकराज शासन-प्रणालो के पक्ष- पाती वास्तव में वही सामाजिक समझौतेवाला सिद्धांत ग्रहण करते हैं, जो पहले अराजक लोगों ने ग्रहण किया था। संभ- वतः सभी प्रकार के प्रजाततंत्र राज्यों में किसी न किसी रूप में सामाजिक समझौतेवाला सिद्धांत ही काम करता था। इस समझौते का ही एक अंग एकराज शासन-प्रणाली में भी व्यवहृत होता था और कौटिल्य उसे एक सर्वमान्य और सत्य सिद्धांत समझता था। भारत में इस समझौते का आरंभ बहुत • देखो श्रागे एकराज शासन-प्रणाली के संबंध में २४ वीं, २५ वाँ, ३६ वा और ३७ वर्षों प्रकरण । अर्थशास्त्र ( १. १४.) पृ० २२-२३. मात्स्यन्यायाभिभूताः प्रजा गर्नु वैवस्वत राजानं चक्रिरे। धान्यषड्- भागं पण्यदशभाग हिरण्यं चास्य भागधेयं प्रकल्पयामासुः। तेन भृता राजानः प्रजानां योगक्षेमवहाः । "जब लोग अन्याय से बहुत पीड़ित हुए, तब उन्होने विवस्वत् के पुत्र मनु को अपना राजा वनाया। उन्होने निश्चय किया कि धान्य का पष्ठांश और पण्य का दशमांश नगद उसे उसके भाग स्वरूप दिया तब से इसी प्रकार राजाओं को उनका अंश मिला करता है और वे प्रजा का योग (शासन) और क्षेम (कल्याण ) किया करते जाय।