पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२८९) पेक्षी हुआ था; और इसी लिये तक्षशिला के निवासी कौटिल्य के लिये यह स्वाभाविक था कि वह अपने अर्थ-शास्त्र में गणों को नष्ट करने की सम्मति देता। $१८० जान पड़ता है कि गण राज्य षड्यंत्रों के द्वारा सहज में नष्ट हो जाया करते थे। कौटिल्य सरीखे राजनीतिज्ञों ने समझ लिया था कि कुल राज्यों में उनके अधिकारियों की व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता तथा शक्ति की तृष्णा के कारण द्वेष और विरोध के बीज बोए जा सकते हैं। जब बुद्ध ने कहा था कि वृजियों पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकती, तब मगध के भूत- पूर्व अमात्य वर्षकार ने कहा था-"उनमें परस्पर मतभेद और द्वेष उत्पन्न करके उन पर विजय प्राप्त की जा सकती है।" यह मतभेद या द्वेष केवल शत्रुओं के षड्यंत्र के कारण ही नहीं उत्पन्न होता था। लोकतंत्री राज्यों में सार्वजनिक सभानों या पार्लिमेंटो में वादविवाद के कारण उनके सदस्यों में परस्पर घोर राग-द्वेष और शत्रुता उत्पन्न हो जाती है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने जहाँ यह बतलाया है कि अपने गण के नेता होने मे मुझे किन किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वहाँ यह भी कहा है कि लोगों की कटूक्तियों से मेरा हृदय जल-भुन गया है। महाभारत में (शान्तिपर्व, गणों का साधारण विवेचन) में इस प्रकार के अप्रिय विवाद का उल्लेख है; और कहा गया है कि इसके परिणाम स्वरूप सार्वजनिक विषयों पर वाद- विवाद बंद हो जाता है और अंत में सभा ही भंग हो जाती हि-१६