पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३२१

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( २६० ) है। बौद्धलेखों में जहाँ इस बात का उल्लेख है कि अजातशत्रु के मुकाबले का जिक्र छिड़ने पर कुछ देर के लिये लिच्छवि राजनीतिक नेतानों में दुर्भाव उत्पन्न हो गया था, वहाँ यह भी कहा गया है कि लिच्छवियों ने आपस के मतमंद के कारण, निमंत्रण का घंटा वजने पर, राजसभा में आना छोड़ दिया था। इसके अतिरिक्त कभी कभी ऐसा भी होता था कि राजनीतिज्ञ लोग अनेक विरोधी दलों में विभक्त हो जाते थे। श्रीकृष्ण ने जो शिका- यत की थी, उसमे इस प्रकार की कठिनता का बहुत विस्तार के साथ उल्लेख किया गया है। उन्होंने कहा था-"जब आहुक और अक्रूर किसी व्यक्ति के पक्ष मे हो जाते हैं, तब उसके लिये इससे बढ़कर और कोई विपत्ति नहीं हो सकती। और जब वे किसी व्यक्ति के पक्ष में नहीं रहते, तब भी उसके लिये इससे बढ़कर और कोई विपत्ति नही हो सकती। क्योंकि दोनों में के किसी दल के व्यक्ति का मैं निर्वाचन नही कर सकता। इन दोनों के बीच में पड़कर मेरी दशा उन दो जुआरियों की माता के समान हो जाती है, जो आपस मे एक दूसरे के साथ जुआ खेलते हैं; और माता न तो इसी बात की आकांक्षा कर सकती है कि अमुक जीते और न इसी बात की आकांक्षा कर सकती है कि अमुक हारे।" .. देखो परिशिष्ट क और ऊपर चौदहर्वा प्रकरण । +जरनल एशियाटिक सोसायटी बंगाल, १८३८. पृ०

  • देखो परिशिष्ट क।

१४-५.