पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३२९

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, (२८) अँधेरे, में देखकर लोगों को धोखा होता था कि ये सजीव लियाँ हैं। भारतीय कला में सदा विदेशियों और विलक्षण प्राकृतिवालों की ओर अधिक ध्यान देने की प्रवृत्ति रहती आई है; और यह प्रवृत्ति आजकल भी हिदुओं की राष्ट्रीय लीलाओं, स्वाँगों और जलूसों आदि में देखने में आती है। हिंदू लोग जिस आदमी को नित्य देखा करते हैं, अर्थात् जो ठीक स्वयं उनकी तरह होता है, उसकी ओर उनका उतना ध्यान नहीं जाता, जितना कि विदेशियों और विलक्षण प्राकृतिवालों, उदा- हरणार्थ बावन, सिंहारूढ़, नाग-पुरुष, नाग-स्त्री, यक्ष, एबि- सीनियन या शत्रु-दल के दुष्ट दासों आदि की ओर जाता है। साँची या भरहूत के शिल्पियों को जब स्वयं अपने यहाँ के राजाओं, रानियों, लियो, बालकों, साधु-संन्यासियों, वृक्षों, गणेश या हनुमान आदि की मूर्तियाँ बनानी पड़ी थीं, तब उन्होंने पहले से ही मानव-विज्ञान संबंधी इस झगड़े का अनुमान कर लिया था। हम साहसपूर्वक कह सकते हैं कि इन सब की बनी हुई मूर्तियों में कोई व्यक्ति चिपटी नाकवाला, गाल की उठी हुई हड्डोवाला अथवा और कोई ऐसा चिह्न नहीं दिखला सकता जो विदेशियों की आकृति का सूचक हो * ।

  • जान पड़ता है कि इनमें से कुछ स्तंभ दूसरों के बनाए हुए

खाकों या मानचित्रों के आधार पर बनाए गए थे और विदिशा के हाथी- र्दात पर खुदाई का काम करनेवालों ने जो रूपकम्" शब्द का व्यव- हार किया है, (वेदिसकोहि दंतकारेहि रूपकंमं कृत) उसका भी यही