पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३३०

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(२६) ६१८६. आगे चलकर साधारण रूप में यह कहा गया है कि ईसवी प्रारंभिक शताब्दियों में भारत की आबादी का अभिप्राय है। ऐसी अवस्थाओ मे मैने जो "मूर्तियों" शब्द का प्रयोग किया है, वह बहुत अधिक उपयुक्त नहीं है। मेरे मित्र मि० पांडेय ने मेरा ध्यान प्रो० अन्वेडेल के इस संबंध में निकाले हुए परिणाम की ओर प्राकृष्ट किया है, जो इस प्रकार है- "भारतवर्ष में भिन्न भिन्न जातियो के जो लोग साथ साथ रहा करते थे, वे सब से बढ़कर अपनी शारीरिक गठन से ही पहचाने जाते थे। जब अशोक के समय मे उत्तरी एशिया के लोगों के साथ उनका संबंध हुआ, तब कुछ नई तरह के लोग पैदा हो गए; और तब इस प्रकार विदेशी जातियो की प्राकृतियां बनाने का प्रयत्न प्रारंभ हुआ। इसके उदाहरण के लिये घुड-सवारो आदि की वे मूर्तियाँ ली जा सकती हैं, जो साँची के द्वारो को सुशोभित करती हैं।" "उदाहरण के लिये पूर्वी द्वार पर पौराणिक विदेशी व्यक्तियो की मूर्तियो के अतिरिक्त सींगवाले शेरो पर सवार दो मूर्तियाँ हैं। उनमे से एक का लिर तो अवश्य ही आर्य ढग का नहीं है। उसके हन्शियो के सेऊनी बाल और सारे सिर की मोटी भही प्राकृति देखकर चकित होना पड़ता है। इसी मूत्ति के हाथ में अंगूरो का एक गुच्छा भी है.... इस मेल की सभी मूत्तियाँ, जो बकरियो, ऊँटो और शेरो पर सवार हैं, हिंदुओ की मूर्ति यो के बिलकुल विपरीत हैं, जो हाथी की सवारी करते हुए दिखलाए जाते है .. ......!" "साँची में और जो स्तंभ हैं, उनमें से अधिकांश में हिंदू ढंग की ही मूर्तियां हैं। उनमें लंबा और भरा हुआ गोल चेहरा, बड़ी बड़ी आँखें और मोटे मोटे होठ दिखलाए गए है। भरहूत में भी इसी प्रकार की प्राकृतिर्या दिखलाई पड़ती हैं, पर वे इससे कुछ अधिक कठोर (कोमलता रहित ) है ।” बगैस का अनुवाद । पृ० ३३-३४. . 1