पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३३५

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( ३०४ ) के कथनानुसार इस समानता पर 'ध्यान न जाना असंभव है। हम यहाँ पर पादटिप्पणी में स्वयं मि० स्मिथ के ही शब्दों

लिच्छवियों की न्याय-प्रणाली के संबंध में मि० स्मिथ के मुख्य

श्राधार टनर का यह कथन है- "इस संबंध में अठ कथा में यह टिप्पणी है- "प्राचीन काल में जब कोई व्यक्ति वजी अधिकारियों या शासकों के सामने लाकर उपस्थित किया जाता है, तव चे उसके संबंध में तुरंत ही निर्णय नहीं कर देते कि यह अपराधी है, बल्कि उस पर केवल यह अभियोग लगाते हैं कि यह अपराधी है। वे उसे विनिच्चिय महामत्ता (प्रधान न्यायाधिकारी) को सौंप देते हैं। वे उसके संबंध में जाँच करने पर यदि यह समझते हैं कि यह अपराधी नहीं है, तो वे उसे छोड़ देते है। पर यदि वे निर्णय करते हैं कि यह अपराधी है, तो वे उसे विना कोई दंड दिए वोहारिका ( व्यवहार या धर्मशान का ज्ञाता) के पास भेज देते हैं। वे लोग भी उसके संबंध में जाँच करते हैं। और यदि उसे निरपराध पाते हैं, तो छोड़ देते है। पर यदि वह अपराधी होता है, तो वे उसे ऐसे अधिकारियों के पास भेज देते हैं जो सुत्तधरा ( सुत्तन् के रक्षक) कहलाते हैं। वे भी उसके संबंध में जांच करते है; और यदि उसे निरपराध समझते हैं, तो छोड़ देते हैं। पर यदि वे उसे अपराधी समझते हैं, तो अटकुलका के पास भेज देते है। वे भी इसी प्रकार उसकी जांच करते हैं और उसे सेनापति (प्रधान अमात्य) के पास भेज देते हैं। वह उसे उपराजा के पास भेज देता है और उपराजा उसे राजा के पास भेज देता है। तव राजा उसके संबंध में विचार करता है और यदि उसे निरपराध समझता है, तो छोड़ देता है। पर यदि वह अपराधी प्रमाणित होता है, तो वह पवेनिपत्थकान (नजीरों या प्रथाओं की पुस्तक) मॅगवाता है। उसमें लिखा रहता है कि यदि कोई व्यक्ति अमुक अपराध करे, तो उसे अमुक दंड मिलना चाहिए। उसके