पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३३७

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तब और चाहे जन साधारण देखें, दोनों ही यह समझ लेगे कि इन दोनों में जो 'समानता' बतलाई जाती है, उसका ध्यान में आना असंभव है। यहाँ लिच्छवियों की शासन-प्रणाली के संबंध में जो कुछ कहा गया है, पाठक उसका मिलान महाभारत में वतलाई हुई* गण की न्याय प्रणाली के साथ करें। लिच्छवियों की न्याय-प्रणालो उन्हीं नियमो आदि पर निर्भर करती थी जो नियम गणों में प्रचलित थे। (४) उसकी और भी कड़ाई से जांच की जाती है; और बीच वीच से उसे कोड़े लगाए जाते है। इसे शान-डी कहते हैं। (५) यदि वह कोई बात सच या झूठ कवूल करता है, अधिक प्रश्न करके उसकी जांच की जाती है, उसे बार बार कोड़े लगाए जाते है और अनेक प्रकार से निर्दयतापूर्वक यातनाएँ पहुंचाई जाती हैं। (६) यदि अपराध विकट होता है और सरकार भी उसमें एक फरीक हो जाती है, तो वह कलोन्स या राज-मत्रियों के न्यायालय में पहुँचाया जाता है। (७) यह न्यायालय अपनी ओर से ग्यल-शव (रीजेंट) को, जिसका न्यायालय समस्त देश में सर्वप्रधान होता है, सूचित करता है कि निर्णय में बतलाए हुए तीन दंडों में से कोई एक दंड देने की अनुमति दी जाय। (८) केवल दलाई लामा ही यह दंड घटा, रोक या दोहरा सकता है। रीजट को केवल यही अधिकार है कि राजमंत्रियों के न्यायालय के बतलाए हुए तीन दंडों में से कोई एक दंड देने की आज्ञा दे।" इंडियन एटिक्वेरी, १९०३. पृ० १३५ में प्रकाशित विन्सेंट स्मिथ का लेख ।

  • देखो अपर तेरहवां प्रकरण और चौदहवें प्रकरण का अंतिम

अंश।