पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३४८

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( ३१७ ) नामहापुरुषः कश्चिन्नानात्मा नासहायवान् । महतीं धुरमादाय समुद्यम्योरसा वहेत् ॥ २३ ॥ सर्व एव गुरुं भारमनड्वान्वहते समे। दुर्गे प्रतीतः सुगवो भारं वहति दुर्वहम् ॥ २४ ॥ भेदाद्विनाशः सङ्घानां सङ्घमुख्योसि केशव । यथा त्वां प्राप्य नोत्सीधेदयं सङ्घस्तथा कुरु ॥ २५॥ नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् । नान्यत्र धनसन्त्यागाद्गुणः प्राज्ञे वतिष्ठते ॥ २६ ॥ धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वपक्षोद्भावनं सदा । ज्ञातीनामविनाशः स्याद्यथा कृष्ण तथा कुरु ॥ २७ ॥ आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो। पाड्गुण्यस्य विधानेन यात्रा यानविधौ तथा ॥ २८ ॥ यादवाः कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः। त्वय्यायत्ता महाबाहो लोका लोकेश्वराश्च ये ॥ २६ ॥ भीष्म ने कहा-इस संबंध में ( राजनीतिक विषयों में संबंधियों के संबंध में) एक प्राचीन इतिहास है। उसमें वासुदेव और नारद में एक संवाद हुआ था । (२) वासुदेव ने कहा- हे नारद, राज्य-संबंधी महत्वपूर्ण बातें न तो उसी से कही जा सकती हैं जो अपना मित्र नहीं है, न उसी मित्र से कही जा सकती हैं जो पंडित नहीं है और न उसी पंडित से कही जा सकती हैं जो आत्मवान् या आत्मसंयमी नहीं है। (३)