पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३४९

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( ३१८) हे नारद, तुममें मैं वह सच्ची मित्रता पाता हूँ जिस पर मैं निर्भर कर सकता हूँ; इसलिये मैं तुमसे कुछ बातें कहना चाहता हूँ। हे सुप्रसन्न, तुम्हारी बुद्धि बहुत प्रबल है, इस- लिये मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ। (४) यद्यपि लोग उसे ऐश्वर्य या प्रभुत्व कहते हैं, तथापि मैं जो कुछ फरता हूँ, वह वास्तव में अपनी जाति के लोगों का दासत्व है। यद्यपि मैं प्राधे वैभव या शासनाधिकार का भोग करता हूँ, तथापि मुझे उनके केवल कठोर वचन ही सहने पड़ते हैं। (५) हे देवर्षि, उन लोगों के कठोर वचनों में मेरा हृदय उसी अरणी की भॉति जलता रहता है जिसे अग्नि उत्पन्न करने की इच्छा रखनेवाला व्यक्ति मथन करता है। वे वचन सदा मेरे हृदय को जलाते रहते हैं । (६) (यद्यपि) संकर्षण अपने बल के लिये और गद अपने राजसी गुणों के लिये सदा से बहुत प्रसिद्ध है और प्रद्युम्न मुझसे भी बढ़कर रूपवान है, तथापि हे नारद, मैं असहाय हूँ। कोई मेरी सहायता करनेवाला या अनुकरण करनेवाला नहीं है। (७) दूसरे अंधक और वृष्टि लोग वास्तव में महाभाग, बलवान् और पराक्रमी हैं। हे नारद, वे लोग सदा राजनीतिक बल ( उत्थान) से संपन्न रहते हैं । (८) वे जिसके पक्ष में हो जाते हैं, उसकी सब बातें सध जाती हैं। और यदि वे किसी के पक्ष में न हो, तो फिर उसका अस्तित्व ही नहीं रह सकता। ,