पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३५०

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(३१६) यदि आहुक और अक्रूर किसी व्यक्ति के पक्ष में हों, तो उसके लिये इससे बढ़कर और कोई आपत्ति ही नहीं हो सकती। और यदि वे किसी व्यक्ति के पक्ष में न हों, तो उसके लिये भी इससे बढ़कर और कोई आपत्ति नहीं हो सकती। मैं दोनों दलों में से किसी दल का निर्वाचन नहीं कर सकता। (८-१०) हे महामुने, इन दोनों के बीच में मैं उन दो जुआरियों की माता की भॉति रहता हूँ, जो आपस में एक दूसरे के साथ जूआ खेलते हैं; और वह माता न तो इस बात की आकांक्षा कर सकती है कि अमुक जीते और न इस बात की आकांक्षा कर सकती है कि अमुक हारे। (११) अब हे नारद, तुम मेरी अवस्था पर और साथ ही मेरे संबंधियों की अवस्था पर भी विचार करो और कृपा कर मुझे कोई ऐसा उपाय बतलानो जो दोनों के लिये श्रेय ( कल्याण- कारक ) हो। मैं बहुत ही दुःखी हो रहा हूँ। (१२) नारद ने कहा- हे कृष्ण, (प्रजातंत्र या गण में) दो प्रकार की आपत्तियाँ होती है; एक तो बाह्य या बाहरी और दूसरी प्राभ्यंतर या भीतरी; अर्थात् एक तो वे जिनका प्रादुर्भाव अपने अंदर से होता है और दूसरी वे जिनका प्रादुर्भाव अन्य स्थान से होता है । (१३) यहाँ जो आपत्ति है, वह आभ्यंतर है। वह (सदस्यों के) स्वयं अपने कर्मों से उत्पन्न हुई है। अक्रूर भोज के अनुयायी >