पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३४०) वाला श्लोक उनमें से दूसरा है, और वह पहले श्लोक के वाद आता है (१०. ३.)। विना पहले श्लोक के यह दूसरा श्लोक अधूरा ही रहता है। भास में केवल अंतिम या दूसरा ही श्लोक दिया है। ऐसी दशा में यह कैसे कहा जा सकता है कि कौटिल्य ने वह श्लोक भास से लिया होगा ? (२) यह कथन बहुत सत्य है कि धर्मों या कानूनों आदि के संबंध में याज्ञवल्क्य और कौटिल्य में बहुत अधिक समानता है। अपने टैगोर लेक्चरों में मैंने इस विषय का विवेचन किया है। यहाँ मैं केवल एक ही ऐसा प्रमाण दूंगा जिससे याज्ञवल्क्य के पहले होने के प्रश्न का पूर्ण रूप से निरा- करण हो जायगा। कौटिल्य ने एक शब्द 'युक्त' का व्यवहार किया है, जिसका अर्थ अधिकारी या अफसर है और जो अशोक के शिलालेख में 'युत' रूप मे आया है। जब तक अर्थ- शास्त्र प्रकाशित नहीं हुआ था, तब तक इस युत्त शब्द का अर्थ कोई समझ ही नहीं सका था; क्योंकि अर्थशास्त्र के वाद के साहित्य में इस शब्द का व्यवहार विलकुल उठ ही गया था। अर्थशास्त्र में युक्त शब्द जिस अर्थ मे प्रयुक्त हुआ था, वह अर्थ याज्ञवल्क्य की समझ में ही नहीं आया था। अर्थशास्त्र में लिखा है-युक्त कर्म चायुक्तस्य; अर्थात् अयुक्त का युक्त कर्म । इसका अभिप्राय है जो व्यक्ति अफसर या अधिकारी नहीं है, उसका किया हुआ ऐसा काम जो किसी अफसर या अधि- कारी को करना चाहिए। डा० शाम शास्त्री ने अपने अर्थ.