पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३४१) शास्त्र के पहले संस्करण के विषय-प्रवेश ( के पृ० १०.) मे यही अर्थ बतलाया है। कौटिल्य का ठीक ठीक अभिप्राय न समझने के कारण ही याज्ञवल्क्य ने यह भूल की है। कौटिल्य ने जहाँ युक्त शब्द का व्यवहार किया है, वहाँ याज्ञवल्क्य ने योग्य, उचित या वाजिब (अयोग्यो योग्यकर्मकृत, २. २३५.) शब्द का व्यवहार किया है; और जहाँ कौटिल्य ने प्रयुक्त शब्द दिया है, वहाँ याज्ञवल्क्य ने अयोग्य शब्द रख दिया है। इस बात का ' निराकरण केवल यही मानने पर हो सकता है कि याज्ञवल्क्य ने कौटिल्य के दिए हुए नियमों को पद्यबद्ध किया और वह कई स्थानों पर उसका ठीक ठीक अभिप्राय नही समझ सका। डा० जोली यह कहकर इस बात में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि किसी से हलफ लेकर बयान देने के लिये कहना नियमानुमोदित न होने के कारण अयोग्य या अनुचित था; और इसलिये इन दोनों बातों में जो अंतर है, वह नाम मात्र का है। परंतु नाम मात्र के अंतर के आधार पर बहुत कुछ खींच-तान करके भी कोई व्यक्ति अयोग्यो योग्यकर्मकृत्- अयोग्य व्यक्ति ऐसा काम करता है जो किसी योग्य व्यक्ति के द्वारा होना चाहिए-का क्योंकर स्पष्टीकरण कर सकता है ? इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने अनेक स्थानों पर पद्यों का भी व्यवहार किया है। यदि उसे याज्ञवल्क्य से ही सब बातें लेनी थीं, तो फिर उसने पद्यो या श्लोकों को सूत्र रूप मे क्यों परिणत किया ? सूत्रो को ही पद्यबद्ध करना अधिक बुद्धिमत्ता-