पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३८३

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( ३५२) (३) रचना-काल ई० पू० चौथी शताब्दी होने के संबंध में कुछ नई दलीलें अर्थशास्त्र में कुछ ऐसे प्रमाण भी हैं जिनका निर्वाह केवल उसी दशा में हो सकता है, जब कि हम उसका रचना-काल ई० पू० चौथी शताब्दी ही माने। यहां यह भी कहा जा सकता है कि इन चीन लोगों का मूल क्षत्रियों से ही माना जाता था। वे लोग ऐसी भाषा बोलते थे जो संस्कृत से निकली हुई थी, क्योकि अर्थशास्त्र में कहा गया है कि चीन देश में जो रेशमी वस्त्र बनते हैं, वे कौशेय और चीनपट्ट कहलाते हैं। न तो कौशेय ही और न पह (सं० पत्र) ही चीनी भाषा का शब्द है । जिस वर्ग में चीन का उल्लेख है, उस वर्ग की और सब जातियाँ हिमालय की ही हैं। इनमें से यह अकेली चीन जाति ही हजारो मील की छलाँग भरकर आधुनिक चीन देश में नहीं पहुँच सकती । उसी प्रकरण (११. २.) में चीन-शीपरो या चमड़ों का उल्लेख है और कहा गया है कि यह बाल्हव से आता था, जो भट्टस्वामिन् के अनुसार हिमालय का एक देश है। गिलगित्त और काश्मीर में अब तक चमड़ा और रेशम दोनो होते हैं । शिन में च और श (शीन-चीन) का विपर्यय साधारणतः हुआ ही करता है; उदाहरणार्थ पुश-पुच् । इसी प्रकार अर्थशास्त्र (पृ० ७८) में पाए हुए पालकंद शब्द का शब्द-रचना के एक भ्रमपूर्ण सिद्धांत के आधार पर, आधुनिक एले- क्जेंड्रिया के साथ संबंध स्थापित करके भूल की जाती है । एलेक्- जेड्रिया का रूप तो अलसहा होता है, जैसा कि मिलिन्द पन्हो में है। अर्थशास्त्र मे मूगे के एक भेद को बालकंदक कहा गया है । संस्कृत में जड़ की तरह हर एक चीज को कंद कहते है। मूंगे के कंद को भी कंद ही कहेंगे। या श्राल का अर्थ है पीला; और पालकंदक का अर्थ होगा- 'मू गे का वह कंद ( जड़ ) जिसका रंग कुछ पीलापन लिए हुए हो।