पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३५७) हुए जिस प्रमाण का समर्थन वात्स्यायन और कामंदक, दंडी और मेधातिथि, पंचतंत्र और तंत्राख्यायिका से होता है, वह प्रमाण ठीक नहीं है। (८) यदि कोई व्यक्ति किसी धर्मशास्त्र की रचना करके उसे किसी ऋषि का रचा हुआ बतलावे, तो इसमे उसका कोई हेतु हो सकता है; पर इस प्रकार की पुस्तक की रचना करके उसे किसी दूसरे की रचित बतलाने में कोई हेतु नहीं हो सकता। और फिर कौटिल्य कोई ऋषि नहीं था। अर्थशास्त्र संबंधी जो ग्रंथ पहले बने थे, उनके रचयिता ऋषि थे। यदि कोई पंडित यह ग्रंथ लिखकर उसे किसी दूसरे का लिखा हुआ बतलाना चाहता, तो वह उसे किसी ऋषि का रचा हुआ बतलाता और कोई ऐसा नाम बतलाता जिससे समाज का बहुत बड़ा अंश (बौद्ध और जैन ) घृणा न करता होता। (६) पुराणों में चंद्रगुप्त का एक दूसरा नाम नरेंद्र भी दिया हुआ मिलता है। केवल इस बात का ही प्रमाण नहीं है कि रचयिता का नाम ग्रंथ में दिया हुआ है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि राजा नरेन्द्र का नाम भी उसमें दिया हुआ है; क्योंकि अर्थशास्त्र में इस बात का आदेश किया गया है कि लक्षणों पर नरेंद्रांक अंकित होना चाहिए (५. ३. पृ० २४७. साथ ही देखो नरेंद्रांक २.१०.)। (१०) केवल प्रारंभिक मायाँ का साम्राज्य ही ऐसा .. इंडियन एंटीक्वेरी, १९१८. पृ० ५५.